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जैनागमों की प्रमाणिकता
विषय के साहित्य की अन्य धर्मावलम्बियों से भिक्षा माँगने की आवश्यकता नहीं रह गई है।
हमारा, यह सर्व प्रथम कर्तव्य है, कि हम उन जगतपूज्य विश्वोपकारी आचार्यों का अधिक-से-अधिक आभार माने । क्योंकि, वे हमारे लिये एक समृद्धिशाली-ज्ञान का अपरिमितभण्डार छोड़ गये हैं, जिसके बल पर जैन-शासन उज्जवल-मुख से संसार के सन्मुख गर्जना कर रहा है । जैनों की संख्या कम होने पर भी, आज सभ्य समाज में जैनों का श्रासन ऊँचा है, यह केवल उन आचार्यों के निर्माण किये हुए साहित्य का ही परिणाम है।
जैन साहित्य, समुद्र के सदृश था, जिसमें का केवल एक बूंद के बराबर हमारे पास शेष रह गया । हमारे दुर्भाग्य से, उस बचे हुए कई ज्ञान भण्डारों को अनार्य लोगों ने ज्यों-का-त्यों जला दिया। यवनों ने, जैनशास्त्रों को भट्टियों में जला-जला कर पानी गरम किया और उस पानी से स्नान किया। बहुत दिनों तक धर्मान्ध यवनों ने भारतीय-साहित्य की होलियां जलाकर हमारे उत्तमोत्तम साहित्य को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। उसमें से यत्किञ्चित बचा हुआ साहित्य आज हमारे पास है, इतने ही को हम अपना सौभाग्य समझते हैं।
पूर्वोक्त दुःखद और विकट परस्थिति को पार करके जो साहित्य बचा है, उसकी जैन, जैनेतर और पौर्वात्य एवं पाश्चात्य-विद्वान लोग मुक्तकण्ठ से भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में, महावीर के पुत्र होने का दम भरने वाला एक समुदाय, उस साहित्य में भी अनेक प्रकार की त्रुटियों के स्वप्न देख रहा
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