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खारवेल का शिलालेख
किया, और न किसी अन्यत्र स्थान पर इस कार्य साधनका विरोध किया, अतः यह समझना कोई कठिन कार्य नहीं कि भगवान महावीर भी इस कल्याणकारी कार्य में सहमत थे ।
प्रस्तुत महाराजा खारवेल के शिलालेख का प्रभाव योरोपियन और भारतीय विद्वानों पर तो पड़ा सो पड़ा ही किन्तु हमारे स्थानकवासी विद्वानों पर भी इसका प्रभाव कम नहीं पड़ा है । क्योंकि मूर्ति विषयक उनकी चिरकाल की दूषित मान्यता को इस लेख ने सहसा पलटा दिया है और इसके फलस्वरूप श्रीमान् संत बालजी ने मूर्तिपूजा को महाराज अशोक के समय से और स्वामी मणिलालजी ने भगवान् महावीर से दूसरी शताब्दी के सुविहितचायद्वारा प्रतिष्ठित मान ली है और इस प्रवृत्ति से जैन समाज पर महान् उपकार होना भी स्वीकार किया है ।
इतना ही नहीं पर वीरात् ८४ वर्ष का वड़ली ( अजमेर) वाला शिलालेख पढ़ कर तो स्थानकवाली विद्वानों को महावीर प्रभु के बाद ८४ वर्षों से ही मूर्तिपूजा का अस्तित्व मानना पड़ा है । पता नहीं फिर भी आगे इस शोध खोज से मूर्तिपूजा की प्राचीनता कहाँ तक सिद्ध होगी ? ।
सुविहित आचार्योंए श्राजिनेश्वरदेवनी प्रतिमानुं आलंबन बतान्यु अने तेनुं जो परिणाम मेळवावा आचार्योए धार्यु हतुं ते परिणाम केटक अंशे भव्युं पण खरू, अर्थात् जिनेश्वरदेवनी प्रतिमा स्थापना अने तेनी प्रवृत्ति ( पूजा ) थी घणां जैन जैनेतर थता अटक्या अने तेम करवामां थे आचार्यों जैन समाज पर महान उपकार कर्यो छे ओम कहवामाँ जर अ अतिशयोक्ति नथी"
प्रभुवीर पटावली पृष्ट १३१.
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