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मू० पु० वि० प्रश्नोत्तर
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दुःख है कि आपने उसको देखा नहीं, ७३ बोलों में १४ वाँ बोल "थई थुई मंगलेणं" अर्थात् तीर्थकरों को स्तुति रूप चैत्यवन्दन करने का फल पूछा, उत्तर में भगवान ने कहा कि तीर्थङ्करों की स्तुति करने से ज्ञान-दर्शन चारित्र की आराधना होती है, जिससे उसी भव में मोक्ष या तीन भव से तो ज्यादा कर ही नहीं सकते हैं। ___प्र:-जम्बूद्वीप पन्नति सूत्र में २६९ पर्वत शाश्वत कहा है उसमें शत्रुञ्जय का नाम नहीं आया, जिसे आप शाश्वत बताते हैं ?
उ०-शत्रुञ्जय पर तो आप फिर पधारें पर पहिले २६९ शाश्वत पर्वतों पर ही ९१ जिनमन्दिर शाश्वत होना लिखा है, इस मूलपाठ को तो आप भी मानते हो ? अब रही शत्रुजय की बात सो अापके ज्ञातासूत्र पाँचवें अध्ययन में थावञ्च पुत्र मुनि ने १००० साधुओं के साथ शत्रुक्षय तीर्थ पर मुक्ति प्राप्त की, तथा सुखदेव मुनि ने १००० मुनियों के साथ वहाँ निर्वाण पद प्राप्त किया।
शैलक मुनि, ५०० मुनियों के साथ वहीं मोक्ष हुए और भी पंडव, जाली, मयाली श्रादि असंख्य जीवों ने उसी पवित्र तीर्थ पर जन्म मरण मिटाया, इसे तो आप भी सादर स्वीकार करते हो, जैसे इस चौबीसी में असंख्य जीव इस तीर्थ पर मुक्त हुए, वैसे गत चौबीसी में भी मुक्त हुए, ऐसी हालत में इसे सदा के लिए पवित्र और तोथ रूप मान लिया जाय तो न्याय संगत
प्र०-भगवती सूत्र में पंचम पारा के अन्त में इस भारत
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