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मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर
टीका के कलेवर को बढ़ाने की कोशिश की है। यदि आपके पूज्यजी से आप कभी मिलें तो इस विषय में प्रसङ्गोपात पूछें कि व्रतों की विधि में इन २६ द्रव्यों का विधान किस सूत्र में लिखा है तथा क्या कोई व्यक्ति अपनी इच्छा के अनुसार द्रव्य नहीं रख सकता है ? विश्वास है तब आपको सच्चा ज्ञान हो जायगा ।
प्र० - पृष्ट २४८ पर हमारे पूज्यजी ने - " सामायिक करने के समय साधु हो तो उन्हें वन्दना करके और यदि साधुन हो तो श्री वर्धमान स्वामी को वन्दना करके उनसे सामायिक की श्राज्ञा लेकर सामायिक करे " - यह लिखा है तो फिर आप स्थापनाजी. क्यों रखते हो ?
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उ०- वाह वाह । श्रापके पूज्यजी की यह विद्वत्ता कम नहीं है । क्योंकि आपके पूज्यजी ने साधुओं के दूसरे नम्बर में श्री वर्धमान स्वामी को समझा है कि “साधु न हो तो वर्धमानस्वामी को वन्दना कर काम चला लेना” परन्तु भला तुम जब वन्दना करते हो तब दो वार प्रवेश और एक बार निखमण किसके अवग्रह से करते हो ? क्या वर्धमानस्वामी की स्थापना करते हो ? या किसी आकाश में ही उनकी कल्पना कर लेते हो ? विशेष इस विषय में मैं पहिले ही खुलासा कर चुका हूँ कि स्थापना की परमावश्यकता है ।
प्र० - पृष्ट २७८ पर आनन्दश्रावक ने "दहीबड़ा" खाना रक्खा है और हमारे पूज्यजी ने भी इसका समर्थन किया है तब आप इसमें पाप क्यों बतलाते हो ?
उ०- यह आपके पूज्यजी की आन्तरिक भावना का प्रदर्शन है कि सूत्र में तो दहीबड़ा का नाम निशान भी नहीं है और
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