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मू०५० वि• प्रभोत्तर
३०८ नहीं है । यदि ऐसा ही है तो फिर आपके साधु अभ्यागत गरीबों को दानदेने में पुण्य बताते हैं और स्वयं दान नहीं देते अतः उन्हें भी चाहिये कि अधिक से अधिक गोचरी लाकर उन अभ्यागत लोगों को दान देकर स्वयं भी पुण्योपार्जन करें।
प्र०-ऐसा करना साधु का कल्प नहीं है ? ___उ०. तो जब मुँह से गृहस्थों को पुण्य बतलाना और स्वयं पुण्य कार्य न करना तथा दूसरों के कल्प के लिए कुतकें करना यह कहाँ का न्याय है ? - प्र०-वे अभ्यागत असंयति अवृत्ति हैं अतः हमारे साधु उन्हें आहार पानी नहीं देते हैं ?
उ०-आपके महाराज का कल्प अर्थात् अधिकार न होने से वे पुण्य होने पर भी इस कार्य को नहीं करते हैं, पर आप जैसे उदार मनुष्य यदि यह पुण्य-कार्य करें उसमें पुण्य होता है या नहीं ?
प्र०-पुण्य अवश्य होता है।
उ०-तो बस, इसी प्रकार प्रभु पूजा के लिए भी समझ लीजिये कि साधुओं का कल्प अर्थात् अधिकार न होने के कारण वे द्रव्य पूजा नहीं कर सकते हैं पर अधिकार वाले गृहस्थ यदि द्रव्य पूजा करें तो उन्हें तो लाभ होता ही है । इतना ही क्यों पर आपके एक टोला का साधु दूसरे टोले के साधुओं (विसंभोगी) को तथा आर्याओं को आहार पानी नहीं देते हैं यदि किसी दिन आहार वच भी जाय तो जंगल में जाकर परठ देते हैं पर विसं. भोगी पाँच महाव्रतधारी साधु मानते हुए भी श्राहार पानी न तो देते हैं और न उनसे लेते हैं, किन्तु यदि कोई गृहस्थ उन साधु
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