________________
२६३
मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर आद्याचार्य सौधर्म गणधर की स्थापना कर आज्ञा लेना कौनसा अनुचित है ? कारण इस समय साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका जो धर्म क्रिया करते हैं वे सब सौधर्मगणधर के आज्ञावर्ती होने से सौधर्मगणधर की ही आज्ञा ले सकते हैं । जिनके अभाव जैसे जिन प्रतिमा है वैसे प्राचार्य के अभाव स्थापनाचार्य है और श्री समवायांगजी सूत्र के बारहवां समवाय में प्राचार्य की स्थापना करना कहाभी है । इसलिये सामायिक प्रतिक्रमणादि जितनी क्रिया की जॉय वे सब स्थापनाजी के आदेश से ही होना शुद्ध है ? यदि स्थापनाचार्य न हो तो वन्दना के समय में प्रवेश करना निकलना तथा 'अहो काय काय संपासं' यह पाठ कहना भी व्यर्थ होजाता है अतएव स्थापना रखना खास जरूरी बात है समझे न ?
प्र०-पांच पदों में मूर्ति किस पद में है ?
उ०-अरिहन्तों की मूर्ती अरिहन्तपद में और सिद्धों को सिद्धपद है।
प्र०-चार शरणों में मूर्ति किस शरणा में है ? उ०-मूर्ति अरिहन्त और सिद्धों के शरणा में है।
प्र०-सूत्रों में अरिहन्त का शरणा कहा है पर मूर्ति का शरणा नहीं कहा है ?
उ०-कहा तो है पर आपको नहीं दोखता है । भगवती सूत्र श० ३ ० १ में अरिहन्त, अरिहन्तों को मूर्ति और भवितात्मा साधु का शरणा लेना कहा है और आशातना के अधिकार में पुनः अरिहन्त और अनगार एवं दो ही कही । इससे सिद्ध हुआ कि जो अरिहन्तों की मूर्ति की आशावना है वह ही अरिहन्तों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
___www.jainelibrary.org