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मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर
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प्र० - साधुधों को तो फाशुक अचित आहार देने में पुराय है पर भगवान् को तो पुष्पादि सचित पदार्थ चढ़ाया जाता है और उसमें हिंसा अवश्य होती है ?
उ०- पर वह अचित आहार बनातो सचित से ही है न । फिर आपका सब ठीक और हमारा खराब क्या यह समदृष्टिपना है । यह तो आपके दिल में एक तरह का भ्रम डाल दिया है जहाँ तहाँ हिंसा का पाठ पढ़ा दिया है पर इसका मतलब आपको नहीं समझाया है। हिंसा तीन प्रकार की होती है ( १ ) अनुबन्ध हिंसा ( २ ) हेतु हिंसा ( ३ ) स्वरूप हिंसा । इसका मतलब यह है कि हिंसा नहीं करने पर भी मिध्यात्व सेवन करना उत्सूत्र भाषण करना इत्यादि वीतरागाज्ञा विराधक जैसे जमाली प्रमुख मिथ्यासेवी दया पालने पर भी उसका तप संयम भी अनुबन्ध हिंसा है (२) गृहस्थ लोग गृह कार्य में हिंसा करते हैं वह हेतु हिंसा है ( ३ ) जिनाज्ञा सहित धर्म क्रिया करने में जो हिंसा होती है उसे स्वरूप हिंसा कहते हैं जैसे नदी के पानी में एक साध्वी बहीं जा रही है साधु उसे देखकर पानी के अन्दर जाकर उस साध्वी को निकाल लावे इसमें यद्यपि अनंत जीवों की हिंसा होती है पर वह स्वरूप हिंसा होने से उसका फल कटु नहीं, पर शुभ ही लगता हैइसी प्रकार गुरु वन्दन, देव पूजा, स्वाधर्मी "भाइयों की भक्ति श्रादि धर्म कृत्य करते समय छः काया से किसी भी जीवों की विराधना हो उसको स्वरूप अहिंसा कहते हैं। सचित और श्रचित का विचार अधिकारी और पात्र पर निर्भर है भगवान् की मौजूदगी में साधु को अचित आहार पानी दिया जाता था तब
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