________________
मू० पू० वि० प्रश्नोत्तर
२३० व्यक्तिगत नामोल्लेख के लिए ही कहते हो तो समझना चाहिये कि भगवान के दीक्षा लेने के बाद भी किसी साधु श्रावक को उन्हें वन्दना करने का उल्लेख नहीं मिलता है तो क्या आप भी भगवान को दीक्षा की अवस्था में अवन्दनीय ही मानते हैं ? क्योंकि आपकी दृष्टि से साधु श्रावक जितना भी गुण उस समय (दीक्षाऽवस्था में) भगवान में न होगा ? मित्रो! अज्ञानता की भी कुछ हद हुआ करती है। - प्र०-मूर्ति वन्दनीय है तो उसमें गुणस्थान कितना पावें । ___ उ० --जितना सिद्धों में पावें, क्योंकि मूर्ति भी तो सिद्धों की है । एवं जीवों के भेद योगादि भी जितने सिद्धों में है उतने ही मूर्ति में समझे। 'प्र०-श्रावक के १२ व्रत हैं, मूर्ति पूजा किस व्रत में है ?
उ०-मूर्ति पूजा, मूल सम्यक्त्व में है जिस भूमि पर १२ घ्रत रूपी महल खड़ा है वह भूमि समकित हैं । आप बतलाइये, सम संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा श्रास्ताये १२ व्रतों में से किस व्रत में है, थदि कहो कि १२ ब्रतों में तो नहीं है पर ये तो सम्यक्त्व के लक्षण हैं तो मूर्तिपूजा भी समकित को निर्मल करनेवाली व्रतों की माता है । मूर्तिपूजा का फल यावत् मोक्ष बतलाया है तब व्रतों का फल उत्कृष्ट धारहवां देवलोक (स्वर्ग)ही बताया है और समकित बिना व्रतों की कीमत भी नहीं है । जैनमूर्ति नहीं माननेवाले लोग मांसमदिरादि भक्षक, भैरूं भवानी यक्षादिदेव और पीरपैगम्बर आदि देवों को वन्दन पूजन कर शिर झुकाते हैं, यही उनकी अधिकता है।
प्र०-यह तो हमारा संसार खाता है ?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org