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डॉ० हर्मन जेकोबी का मत
इसी प्रकार महाराजा वसुपाल के सहस्रकुट नामक जिना - लय के विषय में कथाकोष ग्रन्थ में भी उल्लेख मिलता है । " अहिछत्रपुरे राजा, वसुपाल विचक्षणः । श्रीमज्जैनमते भक्तो, वसुमत्यभिधस्त्रिया ॥ तेन श्रीवसुपालेन, कारितं भुवनोत्तमम् । लसत्सहस्रकुटे, श्रीजिनेन्द्रभवने शुभे ॥"
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इससे स्वतः सिद्ध है कि जैनों में मन्दिर मूर्त्ति का पूजन करना प्राचीन समय से ही प्रचलित है ।
( २८ ) जर्मनी के प्रखर विद्वान् डॉ० हरमन जेकोबी के अभिप्राय ......
आप जब अजमेर आये थे तब उन्हें कई मूर्ति नहीं मानने वालों ने मूर्तिपूजा विषयक अभिप्राय देने को कहा। डॉक्टर साहब को उस समय इतना जैनागमों का बोध न था । अगर आपने सूत्र पहले देखे भी थे तो विशेष कर आचार सम्बन्धी ही । आपके परिपक्काभ्यास के अभाव में श्रापने यह कह दिया कि
No distinct mention of the worship of the idols of the Tirthankaras seems to have been made in the Angas and Upangas × × × I can not enter into details of the subject, but if I cannot be greatly mistaken I have somewhere expressed my opinion that worship in the temples is not an original element of Jain religion.
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पर्य यह है कि आपके देखे जैन अंगों-पांगों सूत्रों में, मूर्तिपूजा के लेख धार्मिक विधानों में नहीं है ।
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