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प्रकरण पाँचवाँ
१७६ आदि खिंचवाने में कौनसी अहिंसा है। इनमें भी तो जैनों के मन्दिर मूर्ति सदृश हो हिंसा होती है, फिर यह दुराग्रह क्यों ? कि जैनों की मन्दिर मत्तिएँ बनने में होता है, और हमारे मर्ति, पादुका, समाधि, फोटो, चित्र, तथा स्थानक बनवाने में अहिंसा होती है । निष्कर्ष यह है कि केवल हठवादी स्थानकवासी अपने चित्त के सन्तोष के लिए ऊपर से यह भले ही कह दें कि हम मूर्तिपूजा नहीं मानते है, पर उनका हृदय तो इस असत्य की साक्षी नहीं देगा । वह मूर्तिपूजक है और भविष्य में भी रहेगा। यदि ऐसा नहीं होता तो ये क्यों अपने पूज्य पुरुषों के पूर्वोक्त स्मारक बनाने में तथा पूज्यभाव रखने में अपना समय गंवाते ? ।
६-इससे आगे चलने पर छठवाँ नंबर सिक्ख संप्रदाय और आर्य समाजियों का मूर्ति विरोध में आता है । किन्तु इनका भी वही हाल है जो पूर्व संप्रदायों का है, ये भी मात्र मुँह से कहते हैं कि हम मूर्ति नहीं मानते किन्तु मानते ये भी जरूर हैं । मूर्ति बिना इनका भी काम नहीं चल सकता । उदाहरणार्थ देखिये:
सिक्खों के पज्य पुरुषों की कई जगह समापिएँ बनी हुई हैं। हजारों सिक्ख उन समाधियों के दर्शनार्थबहुत दूर दूर से आते हैं और नाना द्रव्यों से उन समाधियों की पूजा करते हैं तथा आर्य समाजी भी जब अपना जुलूस निकलाते हैं तब स्वामी दयानन्द सरस्वती के सुन्दर फोटो को पुष्पादि से सजाकर उसे पालको या सवारी आदि में रख शहर भर में घुमाते हैं । यह प्रक्रिया उनकी स्मृति में की जाती है कि जिन्होंने हिन्दू जाति को नये सिरे से मूर्तिपूजा के विरोध का पाठ पढ़ाया था। हम आर्य
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