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प्रकरण पाँचवाँ
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कूफ बताकर हमारी मखौल उड़ायेंगे ! तथा सदा के लिए मन्दिरों के द्वार बंद कराने का दुःसाहस करेंगे ? नहीं! कदापि नहीं !! हर्गिज नहीं !!!
फिर भी यह बात बहुत खुशी की है कि सत्य की कदर करनेवाले जैनेतर पौर्वात्य और पाश्चात्य विद्वान् संशोधकों ने प्राचीन ऐतिहासिक साधनों को जुटा २ कर हमारे भ्रान्त भाइयों को भी भान कराया है जिससे ये लोग भी अब भगवान् महावीर के बाद दूसरी शताब्दी एवं वीरात् ८४ वर्ष से भी मूर्तियों का अस्तित्व स्वीकार करने लगे हैं। परन्तु हमें तो इससे भी पूर्ण सन्तोष नहीं होने का। किन्तु हम तो चाहते हैं कि ये भाई भी हमारी तरह मन्दिर मूर्तियों का गौरव समझ कर उनकी भक्ति भाव से सेवा पूजा करें, तथा इन मन्दिर मूर्त्तियों का गौरव अपनो नस नस में भरें जो कि हमारे पूर्वजों में था तभी जैन की उन्नति, धर्म का अभ्युदय, और आत्मा का कल्याण हो सकता है । अन्यथा केवल कहने मात्र से कि हाँ ? मूर्ति पूजा प्राचीन तो है पर "इस थोथी उक्ति से कोई भी काम
शासन
नहीं चल सकता |
भूतकाल में जैनमूत्तियों का सार्वभौम प्रचार
पूर्व में हम लिख आए हैं कि जैन-धर्म अपनी दिव्य -योग्यता के कारण विश्वप्रिय एवं जगत् व्यापी धर्म हो गया था. अतः उनके प्रबल प्रमाण एवं धर्म स्तम्भ रूप मन्दिर केवल भारत में ही अपना अटल साम्राज्य जमाए बैठे हों सो नहीं किन्तु भारत के - बाहिर यूरोप आदि विदेशो में भी इनका एक छत्र राज्य था,
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