________________
प्रकरण तीसरा
५८
का नमोत्थुणं और ऋषिजी के नमोत्थुणं में अन्तर नहीं पर दोनों का नमोत्थुणं एक ही है।
कई लोग भद्रिक जनता को यों बहका देते हैं कि-देवताओं ने केवल जिन प्रतिमा की ही नहीं पर दरवाजे तोरण पुतलियों वगैरह ३२ स्थानों की पूजा की हैं इसलिये देवताओं की पूजा मोक्षार्थ नहीं समझी जाती है ?
इसका उत्तर स्वयं ऋषिजी का हिन्दी अनुवाद ही दे रहा है कि मूल सिद्धायतन में १७ प्रकार से पूजो एवं नमोत्थुणं से भाव-पूजा कर देवताओं अपने प्राचार मुताबिक दरवाजा तोरण पुतलियों वगैरह के सामने जलधारा, पुष्प, और धूप उखेवन कर स्तूभ के पास जाते है वहां जिनप्रतिमा है उनकी पूजा सिद्धायतन की जिनप्रतिमा के माफिक करते है और ऋषिजी इस बात को मंजूर भी करते हैं देखिये
"जेणव पव्वथिमिल्ला, जिणपडिमाणं, तेणेव, उवा गच्छइ २ ता जिणपाडिमाणं आलोहपमाणं करेति जहा जिण पडिमाण तेहव नमसंति" ___ अनु० जहाँ पूर्व के स्तूप पर जिनप्रतिमा है तहाँ गये और जिनप्रतिमा को देख प्रणाम किया यावत् जिनप्रतिमा की पूजा यावत् नमस्कार किया इसी प्रकार यहाँ भी सब किया ।
श्रीराजप्रश्नीस इस मलसूत्र पाठ और अनुवाद से सिद्ध होता है कि शेष तोरणादि को जलधारा पुष्प और धूप दिया वह अपना आचार अर्थात् साफसूफ करने रूपशुद्धि और मंगलिक समझ के दिया पर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org