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प्रकरण चतु
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आप ऊपर दिये हुए पाठ से भली भाँति जान गये हैं कि ऋषिजा ने तो जेठमलजीके जितनी भी उदारता नहीं बतलाई कि वे मूलसूत्र में पाठ था उसको बिलकुल छोड़कर सिर्फ टीका में वाचनांतर का पाठ था वह थोड़ासा पाठ दे दिया परन्तु मूर्तिपूजा तो उस पाठ से भी सिद्ध हो सकती है फिर आपकी तस्कार वृत्त ( निन्हवता ) का फन क्या हुआ और या तो जैन शाखों की शैली है कि किसी विषय का कहाँ सामान्य और कहाँ पर विशेष वर्णन किया जाता है श्रीजेठमलजी ने सरियाभ के माफिक द्रौपदी ने पूजा की लिखा है तब अमोज़खर्षिजी ने जिन प्रतिमा का अर्चन किया लिखा है परन्तु इसका मतलब तो एक ही है कि महासती द्रौग्दी ने जिन प्रतिमा पूजी थी । स्वामि जेठमलजी के अर्थ करने की विद्वता की ओर भी जरा झाँकी कर देखिये आप 'कयबलिकम्मा' का अर्थ स्नान करने के बाद पीटी ( तेज और आटा-लोट मिश्रित द्रव्य की मालिस) करना fखते हैं यह आगम बिरुद्ध तो है पर साथ में लोकविरुद्ध भी है कारण स्नान करने के बाद कोई समझदार पीटी नहीं करता है वास्तव में 'कयवलिकम्मा' पाठ का अर्थ है द्रौपदी ने घर देरासर की पूजा की थी आगे 'जिनघर' का अर्थ तो आप यक्ष का मंदिर करते हैं और चैत्यवन्दनमुद्रा से द्रौपदी को बैठा के नमोत्थुणं श्रहंत भगवंत अनंत ज्ञानमय आत्मा और मुक्ति प्राप्त किये हुए सिद्धों को दिलवाते हैं इसके अलावा योग्यता (! ही क्या हो सकती है ।
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'स्वामि जेठमलजी ने अपने दिये हुए मलपाठ और उसको अर्थ में यह भी बतलाना है कि द्रौपदी ने जिनप्रतिमा की पूजा
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