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आनंद आवक की पूजा
पूर्व सैकड़ों वर्षों अर्थात् वि० सं० ११२० में टीकाकार श्रीअभयदेवसूरी इस प्रकार बतलाते हैं कि
"नो खलु इत्यादि-नो खलु मम भदंत भगवन् कल्पतेयुज्यते अथ प्रभृति इतः सम्यक्त्व प्रतिपति दिनदारभ्य निरातिचार सम्यक्त्व परिपालनार्थ, तज्जत नामाश्चित्य अन्नउत्थिएति जैनयुथाद्यदन्यत् यूथं संद्यान्तर तीर्थन्तरमित्यर्थ स्तदस्ति येषांतेऽन्ययूथिकाश्चरकादि कुतीर्थकास्तान् अन्ययूथिकं देवतानिका हरिहरादीनि, अन्ययूथिक परिगृहीतानि व अहंच्चैत्याति अहमतिमा लक्षणानि, यथा भौत परिगृहीता, वीरभद्र महाकालादिनि वन्दितुवां अभिवादनंकतु नमस्यनु वा प्रणामपूर्वक प्रशास्तध्वनिभिर्गुणोकीर्तनकर्तु तङ्गक्तांनां मिथ्यात्वस्थिरी करणादिदोषा प्रसगादित्वभिप्राय ।"
श्री उपाशक दशांग सूत्र पृष्ट ५२ ____ आचार्य अभयदेवसूरि की टीका हमारे स्थानकवासी विद्वान् भी प्रमाणिक मानते हैं और न उस समम मतिविषयक ऐसी चर्चा भी थी कि जिसको कोई पक्षपात कह सके अतएव उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि अर्हन् प्रतिमा अन्यतीर्थियों ने ग्रहण करली है यदि श्रावक उन प्रतिमा को वन्दन पूजन करे तो उसको मिथ्यात्व स्थिरीकरण दोष लगता है इस बात को साधारण मनुष्य भी समझ सकता है कि जैनमूर्तियों उस समय भी साधिष्टायक महाचमत्कारी एवं प्रभाविक थी जब तो अन्यतीर्थी उसे लेजा के अपने देव तरीके पूजने लग जाते थे जब जिनप्रतिमा को अन्यतीथि ने अपना देव
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