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आवे आवीने इहोना चैत्य प्राते वांदे | जंघाचारण नो हे गोतम तीच्छ एतली गतिनी विषय कही ।
चारण मुनियों की तीर्थं यात्रा
करे और यहाँ से वहाँ आवे यहाँ आकर फिर ज्ञानी के ज्ञान का गुणानुवाद करे गोतम जंघाचरण का यह तीच्छविषय कहा , श्री भगवती सूत्र पृष्ठ २४६०-६
श्री मगवर्ता सूत्र पृष्ठ १५०८
पूर्वोक्त पाठ में 'चेइयाइँ' शब्द का अर्थ लौकागच्छीय वि० सं० श० टब्बा में चैत्य ( जिनबिम्ब ) किया हैं तब ऋषिजी ने किया है ज्ञान | परन्तु शब्द ज्ञान से तो श्रीमान् ऋषिजी अनभिज्ञ ही हैं क्योंकि आपको एक वचन और वहुवचन का भी ज्ञान नहीं है कारण 'चेइयाई' यह बहुवचन है तब ज्ञान एकवचन है अतः चारणमुनि बहुत चैत्यों को वन्दना किया है दूसरा यदि ज्ञानीके ज्ञान का गुणानुवाद ही बोलना था तो यहां रहे हुए भी बोल सकते थे इस कार्य के लिये करोड़ों योजन जाने की जरूरत ही क्या थी वास्तव में यह ऋषिजी का और विशेष स्थानकवासी समाज का पक्षपात और मिथ्याहट है कि वे इस प्रकार सूत्रों के अर्थ बद लाने में नहीं हिचकिचाते हैं ।
अब हम यह बतलाने का प्रयत्न करेंगे कि चारण मुनियों ने जिन जिन स्थानों की यात्रा करने का शास्त्रकारों ने प्रतिप्रादन किया है वहाँ ज्ञानियों के ज्ञान के ढगले के ढगले पड़े थे कि वहाँ जाकर ज्ञानी के ज्ञान का गुरणानुवाद किया या वहाँ विस्तृत संख्या में जिन चैत्य - ( मन्दिर मूर्त्तियों थी कि जिनका वन्दन किया इस विषय में हमारे ऋषिजी के किये हुए सूत्रों के प्रमाण निम्नोक्त हैं ।
"कहिणं भंते । मंदरस्तपव्वयस्स गंदणवणं गमवणे
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