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जैन मूर्ति का शरणा
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की पुष्टि हमारे स्थानकवासी भाई 'महानिशीथसूत्र' का उल्लेख से इस प्रकार करते हैं कि- अनंतकाल पहिले धर्मश्री नाम के तीर्थंकर हुए। आपके बाद आपके शासन में बहुत से साधु चैत्यवासी हो गये थे उस समय एक कमलप्रभाचार्य हुए वह बड़े ही प्रभाविक थे । एक नगर में आपका शुभागमन हुआ और चैत्यवासियों उनसे यह प्रार्थना की कि हे प्रभो ! श्राप यहाँ चतुर्मास विराजकर मन्दिरों का उपदेश करें कि कोई नये मन्दिर बन जाय । आचार्य श्री को यह विदित हो गया था कि यह लोग चैत्यवासी हैं अतः आचार्य श्री से वे लोग आत्मकल्याण के लिये नहीं किन्तु कापने स्वार्थ अर्थात् इन्द्रियों पोषण के लिये ही चैत्य वृद्धि की प्रार्थना करते हैं उस हालत में आचार्य श्री ने फरमाया कि" जड़वि जिणालयं तहावि सावभं मियाहं वायामि " इसका अर्थ यह होता है कि यद्यपि जिन मन्दिर हैं तथापि तुम्हारा यह सावद्य कर्तव्य को मैं कदापि स्वीकार नहीं करूँगा इत्यादि । हमारे स्थानकवासी भले इसका उलटा अर्थ करें कि उन आचार्यश्री ने मन्दिरों को ही सावध बतलाया था पर यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि अनंतकाल पहिले भी जैनमन्दिर थे और सावद्य के प्रतिपक्ष में यह भी मानना होगा कि निर्वद्य मन्दिर भी थे क्योंकि यदि निर्वद्य मन्दिर नहीं, होते तो सावद्य शब्द की उत्पत्ति भी नहीं होती - जैसे बुरा कहा तो भला भी था, रात्रि कहा तो दिन भी था, खारा कहा तो मीठा भी था, क्योंकि एक शब्द कहा जाता है वह दूसरे की अपेक्षा लेकर ही कहा जाता है इन प्रमाणों से इतना तो अवश्य निश्चय हो जाता है कि जैनों में मन्दिर मूर्तियों का मानना पूजना
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