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उपाशक दशा के जैन मन्दिर
पावोगभणाईं, देव लोग गमगाईं, सूकलपच्चाया, पुणेोबोहिलाभो, अंत किरिया, श्राघविज्जति"
ऋषिजी का हिन्दी अनु० उपासक दशांग का क्या भावार्थ है ? उपासक सो श्रावक उसका क्रिया कलाप से प्रतिबद्ध दश अध्ययन सो उपासक दशांग | उसमें श्रावकों के नगर उद्यान 'व्यंतरालय' वनखंड, राजा, माता पिता समवसरण, धर्माचार्य, धर्म कथा, इस लोक पर लोक को ऋद्धि, वैसे ही श्रावक का शीलाचार १२ गुणुव्रत -रागदिक की वृति, अणुत्रत, प्रत्याख्यान नवकारसी प्रमुख, श्रष्टम्यादि को पोषघात, श्रुत का सुनना सनादि तप का करना, प्रतिमा का वहन, देव दानव मानव के उपसर्ग सहन करना सलेषणा तप से शरीर व कषाय को कृश करना, भात पानी का प्रत्याख्यान, देवलोक गमन, और पुनः सुकुल में बोध वीजकी प्राप्ति, अन्त क्रिया का करना यह जन्म, सब उपासक दशांग में कहा है इत्यादि ।
श्रो समबायंगजी सूत्र पृष्ट २४७ उपरोक्त विषयों का बयान विस्तार पूर्वक उपाशकदशांग सूत्र में था और इन विषयों में श्रात्रकों के 'चेश्राय' पाठ भी आये हैं। इस पाठ का अर्थ वनखण्ड करे तो वनखंड अलग श्राया है साधु करे तो धर्माचार्य अलग आये हैं ज्ञान करे तो श्रुत-ज्ञान पृथक आया है जब ऋषिजी को दूसरा कोई रास्ता नहीं मिला तब श्रावकों के चेश्रायं पाठ का अर्थ होता है श्रावकों के चैत्य, इस स्थान पर आपने श्रावकों के व्यंतरालय कर दिया है पर उस समय ऋषिजी ने यह नहीं सोचा कि भगवान महावीर के श्रावकों के भी व्यंतरालय हो सकते हैं ? कदापि नहीं । आनंदादि श्रावकों ने तो
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