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चमरेन्द्र के तीन शरणा
चमरेन्द्र उर्ध्व लोक में जाता है तब अरिहंत, अरिहंत की प्रतिमा, और भावितात्मा वाला अनागार ( साधु ) का शरणा लेकर ही जाता है जैसे कहा है कि"णरणत्थ अरिहंते वा अरिहंते चेइयाणिवा, अणगारे भिवयप्पणो" लौकागच्छीय गणि रामचन्द्र । स्था० साधु अमोलखर्षिजी संशोधित टब्वा
कृत हिन्दी अनुवाद अरिहंत, तथा अरिहंतना चैत्य जिनभु अरिहंत, छदमस्यअरिहंत, मन वन तथा लेप्पादिकनी प्रतिमा, | गार भवितात्माअने साधु चारित्रिया भावितात्मा चारित्रनागुणों कर संयुक्त ए तीननी निश्रय शरणो कह्यो श्री भगवती सूत्र श० ३ पृष्ट २४६ । श्री भगवती सूत्र श० ३ पृष्ठ ४७४
लौकागच्छीय गगिजी ने 'अरिहंत चेइयाणिबा' पाठ का अर्थ "अरिहंतान-चैत्य जिनभुवन तथा लेश्यादिकनी प्रतिमा" किया हैं तब लौकाशाह के अनुयायी होने का दम भरने वाले ऋषिजी ने 'अरिहंत चेयणिवा' का अर्थ "छदमस्थ अरिहंत" होने का किया है। ऋषिजी को पछाजाय कि यह अर्थ आपने किस
आधार से किया है क्योंकि प्राचीन टीका और टब्बा में तो उस पाठ का अर्थ जिनभुवन या जिनप्रतिमा हैं दूसरा अरिहंत सिद्ध प्राचार्य नपाध्याय और साध एवं पांच पद हैं जिसमें सिद्ध आचार्य उपाध्याय तो छदमस्थ तीर्थकर बन ही नहीं सके शेष अरिहंत
और साधु दो पद रहे इसमें छदमस्थ अरिहंत को श्राप किस पद में समझते हैं जैसे तीन शरणा है कि
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