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प्रकरण दूसरा
सकता है इस विषय के लिये मैं एक स्वतन्त्र किताब लिखने का इरादा करता हूँ।
नियुक्ति टीका बिना तेरहन्थियों का भी काम नहीं चलता है । तेरहपन्थियों के पज्य जीतमलजी स्वामि ने 'भ्रमबिध्वंसन' नामक ग्रन्थ लिखा है उसमें भी आपने नियुक्ति टीका चूर्णि भाष्यादि का कई स्थानों पर प्रमाण दिये हैं। अस्तु गुड वाना और गुलगुलों से परहेज रखना यह कहावत भी चरितार्थ होनी चाहिए। __ पाठको, इस प्रकरण से आप इतना तो अवश्य समझ गये होंगे कि जैनागमों की प्राचीनता एवं प्रमाणिकता में किसी प्रकार का संदह नहीं है तब एक मूर्ति के नहीं मानने के कारण मत्तधारियों को किस किस प्रकार से मिथ्या प्रयत्न करना पड़ा है फिर भी उन लोगों को अपने अभीष्ट की सिद्धि प्राप्त नहीं हुई और आखिर प्राचीन एवं प्रमाणिक आगमों के सामने शिर झुकाना पड़ा। आगे चलकर हम ऋषिजी के अनुवाद करने की योग्यता का दिग्दर्शन कर.वेगें और अगलं प्रकरणों में खास ऋषिजी के मूलसूत्र और हिन्दी अनुवाद से ही मर्तिपजा सिद्ध कर बतलायेंगे और साथ हो साथ प्रसंगोपात यह भी बतलादेंगे, कि लौं कागच्छीय प्राचार्यों के सूत्रों तथा अर्थ में और ऋषिजी के किये हुए हिन्दी अनुवाद में कितना विरोध एवं कैसी जबरदस्त खींचातानी है । पाठकगण, आगे के प्रकरण खूब ध्यान, -लगाकर पढ़ें।
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