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प्रकरण दूसरा
भवन टूटने लगा, तब उसका मसाला लेकर तात्कालिक आचार्यों ने अनेक छोटे-बड़े ग्रन्थ बनाने में अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय दिया । यदि, वे आचार्य इस पवित्र कार्य के निमित्त प्रयत्न न करते, तो आज हमारे मुख्य सिद्धान्त स्याद्वाद, कर्मवाद, आत्मवाद, परमाणुवादादि को समझने के लिये अन्य कोई भी साधन शेष नहीं रह जाते।
जिस तरह उन महोपकारी-प्राचार्यों ने तात्विक, दार्शनिक, आध्यात्मिक आदि विषयों के प्रन्थों का निर्माण किया, उसी तरह उन्होंने विधि-विधानादि के भी अनेक ग्रन्थों की रचना कर डाली ! यदि उन श्राचार्यों ने यह उपकार न किया होता, तो, हमारे साधुओं को दीक्षा-बड़ीदीक्षा-वाचना और बालोचना तथा श्रावकों को सामायिक पौषध प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं की विधि से भी वंचित रह जाना पड़ता। क्योंकि, उपयुक्त क्रियाओं का विस्तृत-विधि-विधान हमारे मूलागमों में कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होता। शायद इनका कारण यह हो, कि उपर्युक्त क्रियाएं उस समय आम तौर से प्रचलित हो रही हो और अन्यान्य आगम जो मुनियों को कण्ठस्थ थे, उन्हें पहिले लिखने की आवश्यकता समझ कर इन प्रचलित क्रियाओं के वर्णन को स्थान न दिया जा सका हो । ___ हमारे धर्माचार्यों ने, धार्मिक विषयों के साथ ही साथ,न्याय व्याकरण, तक, छन्द, अलङ्कार, ज्योतिष और संस्कारादि के साहित्य की सेवा करके, समाज पर कुछ कम उपकार नहीं किया था। उसी का यह परिणाम है, कि आज हमें किसी भी
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