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जैनागमों की प्रमाणिकता
हमारे दूरदर्शी, जैनाचार्य लोग यदि केवल ८४ आगमों से ही संतोष करके बैठे रह जाते, तो आज साहित्यिक-क्षेत्र में हमारा जो सर्वोपरिस्थान माना जाता है, वह कदापि न रह पाता। हमारे उन शासन-स्तम्भ, धर्म-रक्षक श्राचार्यों ने, अपने साधारण ज्ञानवाले मुमुक्षुओं के बोधार्थ आगमों में निहित गूढ-रहस्यों को प्रस्फुटित करने के उद्देश्य से आगमों पर नियुक्ति, टोका, चूर्णि, भाष्य और वृत्यादि की रचना करके दोपक नहीं बल्कि सूर्य के सदृश प्रकाश फैला दिया। यह सब होने पर भी, उन आचार्यों में एक बड़ी भारी विशेषता यह थी कि भिन्न-भिन्न श्राचार्यों ने पृथक २ समय में ओगमों पर विवरणों की रचना की है, किंतु फिर भी सब प्राचार्य आगमों की बात को ही पुष्ट करते रहे हैं। यदि किसी ने तर्क का समाधान भी किया है, तो श्रागमों के अनुकूल हो । यदि, कोई बात किसी के समझ में न आई, तो उसे 'केवलीगम्य' कह कर छोड़ दिया गया। उन भवभीरु महापुरुषों ने, यह कहने का दुस्साहस कभी नहीं किया कि आगमों अथवा विवरणों की अमुक बात हमें मान्य नहीं है । कारण, कि वे मुमुक्षुगण, भवभ्रमणके वनपाप से सदैव भयभीत
आगमों के अतिरिक्त जैनाचार्यों ने अन्य अनेक विषयों पर पर्याप्त संख्या में ग्रंथों की रचना की है। यह रचनाकार्य मी स्वमति से नहीं, अपितु जैनागमों के आधार पर ही किया गया है। जिस तरह किसी विशाल-भवन के टूटने पर सममदार मनुष्य उसकी सामग्री से अन्य अनेक छोटे-बड़े मकान बना मलते हैं, उसी तरह जब हमारा दृष्टिवादाङ्गरूपी विशाल
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