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प्रकरण दूसरा
. उपर्युक्त तालिका के प्रथम कोष्ठक में क्रमसंख्या, दूसरे में आगमों के नाम, तीसरे में आगमों के पद और चतुर्थ में पदों के श्लोकों की संख्या अंकित है। किंतु यह श्लोक-संख्या, भगवान् महावीर के ९८० वर्ष पश्चात, यानी प्राचार्य देवाद्धिगणि समाश्रमणजी के समय तक नहीं रह गई थी। श्री देवर्द्धिगणिजी के समय आचारांगसूत्र के केवल २५२५ श्लोक ही शेष रह गये थे, जो तालिका के पांचवें कोष्ठक में दर्ज हैं, और इतने ही श्लोक क्षमाश्रमणजी ने पुस्तकारूढ़ किये थे। उस समय पुस्तक के रूप में लेखनीबद्ध किये आगम, आज भी ज्यों के त्यों विद्यमान हैं। उनमें, आज तक किसी ने एक अक्षर भी न्यूनाधिक नहीं किया है। इसका कारण यह है, कि जैनधर्मावलम्बियों की यह सुदृढ़ मान्यता है, कि अंगसूत्र स्वयं तीर्थंकरों के फरमाये एवं गणधरों के प्रन्थित किये हुए हैं । इनमें, यदि कोई अक्षरमात्र भी न्यूनाधिक करे तो उसे अनन्त संसार परिभ्रमण करना पड़ेगा । यही कारण है, कि आगमों का स्वरूप आज तक उसी दशा में चला आ रहा है कि जिस रूप में श्री क्षमाश्रमणजी ने उन्हें लेखनीबद्ध किया था।
इन अंगशास्त्रों के अतिरिक्त, भगवान महावीर के पश्चात् और श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणजी के पूर्व कई स्थविरों ने उपांगसूत्रों तथा कालिक-उत्कालिक शास्त्रों की रचना की थी। इन सबको भी श्री क्षमाश्रमणजी ने अपने नेतृत्व में लेखनीबद्ध करवा दिया था और इन सब आगमों का उल्लेख उन्होंने स्वरचित नन्दीसूत्र में कर लिया। इस तरह, उस समय सब आगमों की . संख्या ८४.निश्चित हुई थी।
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