________________
श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्प माला पु० नं० १६४
मूर्त्तिपूजा का प्राचीन इतिहास
प्रकरण पहिला । ( मूर्तिपूजा की प्राचीनता )
र्तिपूजा का इतिहास मानव जाति के सम सामयिक मानव जाति और अन न्त है तो मूर्तिपूजा को भी अनादि और अनन्त मानने में विद्वानों को किसी प्रकार की शंका करने का स्थान नहीं मिलता है, और यह बात अनुभव सिद्ध भी हैं क्योंकि विश्व के साथ मूर्त्तिपूजा का घनिष्ट सम्बन्ध है । इसका कारण यह है कि विश्व स्वयं मूर्त्ति - मान पदार्थों का समूह है ।
जैन - आगमों में षट्-द्रव्य शाश्वत बतलाए हैं, जिसमें पांच द्रव्य श्रमूर्त्त और एक द्रव्य मूर्त्त है । परन्तु पांच अमूर्त्त द्रव्यों का ज्ञान भी मूर्त्त द्रव्य द्वारा ही होता है । श्रतएव मूर्त्तिमान् द्रव्य अनादि और अनन्त है, जब मूर्त्त द्रव्य अनादि है तो मूर्तिपूजा श्रनादि मानने में संदेह ही क्या हो सकता है ? कदापि नहीं ।
मूर्ति का अर्थ है - श्राकृति, शकल, नक़शा, चित्र- फोटू, प्रतिविम्बं और प्रतिमा । सभ्य समाज में मूर्त्ति का खूब आदर हैं।
२२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org