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प्राक्कथन
मनुष्य गति ही क्या संसार की समस्त अवस्थाओं में जीव का कार्य, रूपी मूर्त्तिक पदार्थ को स्वीकार किये बिना चल ही नहीं सकताः – देवगति में देखिये जहाँ कहीं वर्णन मिलेगा उनकी सुखोपभोग सामग्री एवं विक्रिया आदि का मिलेगा। इसी तरह नरकगति में दुःखप्रद सामग्रियों के चित्र सामने प्रतीत होंगे। मनुष्य और तिर्यच्च गति के विषय में कहने की आवश्यकता नहीं ।
मुमुक्षु जीवों का अंतिम ध्येय जन्म-मरण के महान् दुःखों का अंत कर मोक्ष प्राप्त करने का हो होता है । इसमें कोई संदेह नहीं कि इसी पवित्र उद्देश्य को पूर्ति के लिये अन्यान्य साधनों में विश्ववन्ध, जगत्पूज्य, महान् उनकारी, वीतराग देव की निर्वि कार, शान्तमुद्रा, ध्यानावस्थित मूर्ति एक मुख्य साधन है । और इसी के निमित्त से साधारण परिस्थिति में स्थित व्यक्तियों से लेकर उच्च अध्यात्म कोटि में रमण करने वाले भव्यात्माओं ने अपनी आत्मा का कल्याण किया । यही कारण है कि एक समय अखिल संसार मूर्तिपूजक था और आज भी किसी प्रकार से क्यों न हो पर मूर्ति का सत्कार संसार भर में हो ही रहा है । अभी ही क्या आगे भी जब तक सृष्टि का अस्तित्व है तब तक बराबर मूर्ति की सत्ता स्थापित रहेगी – सच है ध्रुव-सत्ता का न तो कभी उत्पाद होता है और न कभी नाश, उसका अस्तित्व सदैव बना ही रहता है ।
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