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साधना का अर्थ
लेते हैं। ___इस चर्चा के बाद मुझे यह बहुत स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं रहेगी कि साधना की हमारे जीवन में क्या अपेक्षा है। कोई पीतल का बर्तन घिस गया । उस पर मैल जम गया। अब जरूरत क्या है ? उसकी चमक खो गई। उस चमक को पाना है तो उसकी घिसाई करनी होगी । जैसे ही घिसाई की, चमक लौट आयी । वह गई नहीं, दब गई थी। घिसाई की और वह लौट आयी। हमारी चेतना की चमक घिस जाती है, खो जाती है। हम थोड़ी घिसाई करते हैं, सफाई करते हैं, वह फिर लौट आती है । हम अपनी शक्तियों को नहीं जानते । उनकी ओर पीठ किए चलते हैं। अपनी शक्तियों से परिचित न होना कितना आश्चर्य है। अरनी की लकड़ी सामने है। पता नहीं चलता कि उसमें कोई तेज है। किन्तु उन लकड़ियों का थोड़ा-सा घर्षण होता है, तेज फूट पड़ता है । आग निकल आती है। वह आग कहीं बाहर से नहीं आती। वह लकड़ियों के भीतर है। थोड़े से घर्षण की जरूरत थी। वह हुआ और आग प्रकट हो गयी। हम भी थोड़ा घर्षण करना सीखें। थोड़ा खोना सीखें । इतना कूड़ा-करवट जमा हो गया है, उसे खोना है। खोना जीवन की बहुत बड़ी सफलता है और वह हमारी सबसे बड़ी साधना है। इसीलिए आचार्य ने कहा- 'मैंने साधना करते-करते खोया है, खोता चला जा रहा हूं और खोता ही रहूंगा। पाना कुछ भी नहीं है, जितना ज्ञान है, वह सारा आपके भीतर है। जितना दर्शन है, वह सारा का सारा आपके भीतर है । जितनी शक्ति और जितना आनन्द है, वह पूरा का पूरा आपके भीतर है । कोई भी महान् उपलब्धि ऐसी नहीं है जो हमें बाहर से मिले। किन्तु कोई भी उपलब्धि उस व्यक्ति को प्राप्त नहीं होती जो खोना नहीं जानता, निर्जरा करना नहीं जानता।
लक्ष्य के प्रति चेतना की समग्रता आते ही खोने का रास्ता साफ हो जाता है । आचार्य भिक्षु जब साधना के तट पर चले तब उनके सामने कोई प्रलोभन नहीं था । वे जिस संघ में थे, उसमें उनका अग्रणी स्थान था, शीर्ष स्थान था। फिर भी वे उसे छोड़ दूसरे मार्ग पर चल पड़े। सामने पहाड़ियां, ऊबड़खाबड़ जमीन, खोहें और गड्ढे । लोगों ने कहा-"ऐसा क्यों ? यह कैसी समझदारी ? इतनी सुख-सुविधाओं को छोड़ ऐसा विषम मार्ग क्यों चुना? आप क्या सुख पायेंगे ?" भिक्षु स्वामी ने कहा-"भले प्राण चले जाएं, पर मैं इस मार्ग पर चलूंगा। जयाचार्य ने लिखा है-"मरण धार शिव मग