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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
आगन्तुक - युवक उसके चेहरे पर उत्साह और नवचैतन्य की उमंगें नाच रही थीं । उसकी बड़ी - बड़ी आंखों में नवतेजोमय उत्साह छलक रहा था । उसके विस्तीर्ण ललाट पर पसीने के बिन्दु चमकते थे और आंखों में वीरश्री का उज्ज्वल पानी झलक रहा था । युवक ने महाद्वार के प्रतिहारी को अत्यन्त विनीत भाव से प्रणाम किया और धीमे स्वर में कहा "मैं महाराज की मलाकात के लिए आया है।" बस! इतना ही कहकर वह युवक चुप हो गया । आत्मगौरव की भावनाओं से उसका मुख मंडल निमेष मात्र के लिए प्रसन्न हो गया था ।
"नहीं इस समय आप राजमहल में नहीं जा सकेंगे।" द्वारपाल ने युवक के चेहरे को निहारकर उत्तर दिया । "आपसे महाराज का इस वक्त मिलना असंभव है । आप फिर भी .." द्वारपाल की बात काटकर युवक ने अदम्य उत्साह से विनम्र भावयुत होकर फिर कहा – नहीं मुझे इसी वक्त महाराज से मिलने की आवश्यकता है । आपसे कहने तक का भी समय नहीं, मुझे जल्दी ही जाने दो । आप किसी तरह की शंका न रखें । महाराज मुझे देखते ही नाराज होने के बदले प्रसन्न होंगे।
महाराज वीरधवल एकांत चित्त से दीपकों के प्रकाश में राजनगर का सौन्दर्य निरीक्षण कर रहे थे । अस्तगामी सूर्य की अस्पष्ट लालिमा भी अब अदृश्य हो चुकी थी। चारों तरफ अंधकार ने अपना अधिकार जमा लिया था। महाराज की नजर महाद्वार पर गयी । द्वार पर खड़े युवक को देखते ही वे प्रसन्न हो गये । महाराज ने प्रौढ़ और गंभीर आवाज से पुकारा - द्वारपाल!" ___ महाराज की पुकार सुनते ही हाथ जोड़ प्रणामकर द्वारपाल ने कहा - "आज्ञा सरकार" "उन्हें हमारे पास भेज दो।" महाराज वीरधवल का यह वाक्य पूरा भी न होने पाया था, महाद्वार खोला गया और अपने पीछे पीछे उस युवक को लेकर वह प्रतिहारी राजा के समीप आया, फिर तीन वक्त प्रणामकर द्वारपाल वहां से बाहर निकल गया । महाराज ने उस युवक को देखकर विचार किया इस वक्त संध्या समय में मेरे पास आनेवाले मनुष्य को अवश्य ही कोई महान् प्रयोजन होगा । राजा को चाहिए हर एक प्रजाजन के दुःख को हर समय