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श्री महाबल मलयासुंदरी चरित्र
आगन्तुक - युवक ।। प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरायनमः ।।
।। श्री महारबल मलयासुन्दरी चरित्र ।।
आगन्तुक - युवक
महाराज वीरधवल अपने राजप्रसाद के ऊपरी दालान में बैठे हुए थे । संध्या का सुहावना समय था । वासरमणि सूर्य अपनी सुदूरवर्ती किरणों को समेटकर अपने निवास स्थान की ओर प्रस्थान कर रहे थे । दिनभर अथक परिश्रम करने वाली मनुष्य जाति अपने - अपने घर पर आ विश्राँति में मग्न थी। पक्षीगण अपने अपने घोंसलों में जाकर शांति में लीन हो रहे थे। सृष्टिदेवी पर निस्तब्धता छायी हुई थी । आकाश मण्डल धुंधले रंग में प्रकाशहीन पर अतीव शोभायमान दिख रहा था । राजमहल के भव्य द्वार पर प्रतिहारी रात्रि का आगमन होने के कारण सावधान हो संरक्षण की भावना से पहरा दे रहे थे। विशाल राजमहल के गगन चुंबी शिखरों पर धीरे - धीरे अंधकार का साम्राज्य फैल रहा था । राजप्रसाद के समस्त कर्मचारी अपने अपने नियत कार्य पर लग चुके थे । सृष्टिदेवी शांत, स्निग्ध, हृदय से निद्रा की आराधना कर रही थी।
जिसने असंख्य आशाओं की, अपरिमित लालसाओं की पूर्ति का समय 'अपनी आँखों से देख लिया है, जिसने राजेश्वर्य का दुष्प्राय सुख भोग लिया है, ऐसे महाराज वीरधवल सभा विसर्जनकर रात्रि के प्रशांत समय में राजमहल के ऊपर के एक भाग में बैठे थे । सारी प्रजा उनके राजनियंत्रण की दयामय स्थिति से संतुष्ट थी । महाराज वीरधवल जहां पर बैठे हुए थे वहाँ से राजनगरी का मनोरम दृश्य दिख रहा था ।
ऐसे सुहावने समय में नीचे के द्वार पर किसी की आहट आयी । समुद्र की लहरें शांत हो जाने पर जैसे समुद्र शांत दिखता है, उसी तरह राजमहल गंभीर शांतता में विलीन था । राजमहल के महाद्वार पर प्रतिहारिओं के पास एक नवयुवक आकर खड़ा हुआ । युवक गठीले शरीर का आरोग्य संपन्न था।