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कर्मबन्धों की विविधता एवं विचित्रता १५ भूयस्कार और अल्पतरबन्धों में इतना ही अन्तर है कि गुणस्थान से क्रमशः पतन (अवरोहण) के समय भूयस्कारबन्ध और गुणस्थान से आरोहण के समय • अल्पतरबन्ध होते है। लेकिन गुणस्थानों में अवरोहण और आरोहण क्रम-क्रम से होता है, एकदम नहीं, ऐसा नियम है। अतः उक्त दोनों बन्धों के तीन-तीन भेद हैं, अन्य विकल्प संभव नहीं हैं।
अवस्थितबन्ध : स्वरूप और प्रकार अवस्थितबन्ध-पहले समय में जितने कर्मों का बन्ध किया है, दूसरे समय में उतने ही कर्मों का बन्ध करना अवस्थितबन्ध कहलाता है। अर्थात्-आठ को बांधकर आठ का, सात को बांधकर सात का, छह को बांधकर छह का और एक को बांधकर एक का बन्ध करने को अवस्थित बन्ध कहते हैं। बन्धस्थान चार हैं, इसलिए अवस्थितबन्ध भी चार ही होते हैं।१ ।
अवक्तव्य-बन्ध : स्वरूप और कार्य ... अपनायबन्ध-एक भी कर्म को न बांधकर पुनः कर्मबन्ध करने को अवक्तव्यबन्ध कहते हैं। यह बन्ध मूल कर्मों के बन्धस्थानों में नहीं होता है, क्योंकि तेरहवें गुणस्थान तक तोरे बराबर कर्मबन्ध होता ही रहता है। चौदहवें गुणस्थान में ही किसी कर्म का बन्ध नहीं होता; किन्तु चौदहवें गुणस्थान में पहुँच जाने के बाद कोई भी जीव लौटकर नीचे के गुणस्थान में नहीं आता है, जिससे एक भी कर्मबन्ध न करने से, पुनः कर्मबन्ध करने का अवसर ही नहीं आता। इसलिए मूल कर्मप्रकृतियों में अवक्तव्य बन्ध भी नहीं होता है।
भूयस्कार आदि बन्धों के विषय में स्पष्टीकरण भूयस्कार, अल्पतर और अवक्तव्य बन्ध केवल पहले समय में ही होते हैं; - जबकि अवस्थित बन्ध दूसरे आदि समयों में होता है। जैसे-कोई जीव ६ कर्मों का
बन्ध करके सात का बन्ध करता है तो यह भूयस्कार बन्ध है, किन्तु दूसरे समयों में यह भूयस्कार नहीं हो सकता; क्योंकि प्रथम समय में सात का बन्ध करके अगर दूसरे समय में आठ का बन्ध करता है तो भूयस्कार बदल जाता है और छह कर्म का बन्ध करता है तो अल्पतर हो जाता है तथा सात का बन्ध करता है तो अवस्थित हो जाता है।
१. पंचम कर्मग्रन्थ गा. २२ विवेचन पृ. ९० से ९४ (मरुधरकेसरी) २. अबंधगो न बंधइ, इह अव्वत्तो अओ नत्थि।
.. -पंचसंग्रह २२०
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