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कर्मबन्धों की विविधता एवं विचित्रता १३ करता है। इसके सिवाय कोई भी ऐसी दशा नहीं है, जहाँ एक साथ दो या तीन, चार अथवा पाँच कर्मों का बन्ध होता हो । १
या
मूल प्रकृतियों में भूयस्कार बन्ध: किसमें और कितने
भूयस्कार बन्ध का लक्षण - पहले समय में कम प्रकृतियों का बन्ध करके दूसरे समय में अधिक कर्म प्रकृतियों के बन्ध को भूयस्कार बन्ध कहते हैं । मूल प्रकृतियों में भूयस्कार बन्ध तीन ही होते हैं। वे इस प्रकार हैं
प्रथम - कोई जीव ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थान में एक सातावेदनीय का बन्ध करके वहाँ से गिरकर दसवें गुणस्थान में आता है, तब वहाँ पूर्वोक्त छह प्रकृतियों का बन्ध करता है। यह प्रथम भूयस्कार बन्ध है ।
द्वितीय - वही जीव जब दसवें गुणस्थान से च्युत होकर नीचे के गुणस्थानों में आता है, तब वहाँ सात कर्मों का बन्ध करता है। यह दूसरा भूयस्कार बन्ध है ।
तृतीय- जब वही जीव आयुकर्म का बन्धकाल आने पर जब आठों कर्मों का बन्ध करता है, यह तीसरा भूयस्कार बन्ध है । २
पूर्वोक्त चार बन्धस्थानों में तीन भूयस्कार बन्धों के सिवाय तीन अन्य भूयस्कार बन्धों की कल्पना इस प्रकार की जाती है - (१) एक को बाँधकर ७ कर्मों का बन्ध करना, (२) एक को बाँधकर ८ कर्मों का बन्ध करना और (३) छह को बाँध कर आठ कर्मों का बन्ध करना । इनमें से आदि के दो भूयस्कार बन्ध दो तरह से संभावित हैं - (१) गिरने की अपेक्षा से और (२) मरण की अपेक्षा से । किन्तु गिरने की अपेक्षा से आदि के दो भूयस्कार बन्ध इसलिए सम्भव नहीं हो सकते, क्योंकि ग्यारहवें गुणस्थान से गिरकर जीव सीधा दसवें गुणस्थान में आता है, फिर दसवें से नौवें में आता है आदि । किन्तु यदि जीव ग्यारहवें से गिरकर सीधा नौवें या सातवें गुणस्थान में आता, तब तो एक को बाँध कर सात का या आठ कर्मों का बन्ध कर सकने से पहला और दूसरा भूयस्कार बन सकता था, मगर पतन जब भी होता है, क्रमशः होता है, इसलिए पतन (गिरने) की अपेक्षा से तो ये दो भूयस्कार बन ही नहीं सकते। इसी प्रकार छह को बाँधकर आठ कर्मों का बन्धरूप तीसरा भूयस्कार बन्ध भी नहीं बन सकता, क्योंकि छह कर्मों का बन्ध दसवें गुणस्थान में होता है और आठ कर्मों का बन्ध होता है - सातवें गुणस्थान में तथा उससे नीचे के गुणस्थानों
१. पंचम कर्मग्रन्थ गा. २२, २३ की व्याख्या (मरुधरकेसरीजी) से पृ. ८८, ८९ २. (क) एगादहिगे भूओ एगाई - अणगाम्मि अप्पतरो ।
तम्मत्तोऽवट्ठियओ, पढमे समए अवत्तव्वो ॥ २ ॥ पंचम कर्मग्रन्थ (ख) पंचम कर्मग्रन्थ गा. २२ विवेचन (पं. कैलाशचन्दजी) पृ. ६१ से ६३
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