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नामों की सूची मे 'श्रेयस' अनन्त, तीर्थंकर भी थे। हमारी दृष्टि से
महाभारत में विष्णु और शिव के जो सहस्र नाम है उन धर्म, शान्ति और संभव ये नाम विष्णु के भी आये हैं जो जैन धर्म के इन तीर्थंकरों के प्रभावपूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व के कारण ही इनको वैदिक परम्परा ने भी विष्णु के रूप में अपनाया है । नाम साम्य के अतिरिक्त इन महापुरुषों का सम्बन्ध असुरो से जोडा गया है, क्योंकि वे वेद विरोधी थे। वेद विरोधी होने के कारण उनका सम्बन्ध भ्रमण परम्परा से होना चाहिए। यह बात पूर्ण रूप से सिद्ध है ।
भगवान प्रति
बौद्ध थेरगाया मे एक गाया अजितबेर के नाम से आयी है। उस गाया की अट्ठ कथा मे बताया गया है ये अजित ११ कल्प से पूर्व प्रत्येक बुद्ध हो गये हैं। जैन साहित्य में अजित नाम के द्वितीय तीचं कर हैं और संभवतः बौद्ध साहित्य में उन्हें ही प्रत्येक बुद्ध अजित कहा गया हो, क्योंकि दोनों की योग्यता, पौराणिकता, एव नाम साम्य है। महाभारत मे अजित और शिव को एक चित्रित किया गया है। हमारी दृष्टि से जैन तीर्थंकर अजित ही वैदिक बौद्ध परम्परा मे भी पूजनीय रहे हैं और उनके नाम का स्मरण अपनी दृष्टि से उन्होने किया है ।
भगवान् ऋषभ
श्रमण परम्परा का उद्गम भगवान् ऋषभदेव से हुआ है । जयघोष ब्राह्मण ने निर्ग्रन्थ विजय घोष से पूछा -- धर्म का मुख क्या है ? विजयघोष ने उत्तर दिया- धर्म का मुख काश्यप ऋषभ है ।१
श्रीमद् भागवन् के अनुसार भगवान् ऋषभ श्रमणों ऋषियों तथा ब्रह्मचारियों (ऊमन्थिनः ) का धर्म प्रकट करने के लिए शुक्ल-सत्यमय विग्रह से प्रकट हुए। ७२
भगवान् ऋषभ जैन संस्कृति की दृष्टि से प्रथम राजा, प्रथम जिन, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर और प्रथम धर्म चक्रवर्ती थे । ७३ श्री मद्भागवत् से भी प्रस्तुत कथन का समर्थन होता है । वहाँ पर बताया गया है कि वासुदेव ने आठवाँ अवतार नाभि और मरुदेवी के वहाँ धारण किया। वे ऋषभ रूप में अवतरित हुए और उन्होंने सब आश्रमों द्वारा नमस्कृत मार्ग दिखलाया । ४ एतदर्थ ऋषभ को मोक्ष धर्म की विवक्षा से वासुदेवांश कहा है।७५
७०. मरणे मे भयं नत्थि निकन्ति नत्थि जीविते ।
सन्देहं निक्खिपिस्सामि सम्पजानो परिस्सतो ।
- बेरगाथा | २०
७१. उत्तराध्ययन २५|१४|१६
७२. धर्मान् दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणा नामृषीणामूर्ध्वमन्यिना शुक्लया तनुनावतार: ।
- श्रीमद्भागवत ५।३।२०
७३. उसके नाम अरहा कोसलिए पढमराया पढमजिणे पडमकेवली पढमतित्यकरे पढ मधम्मवरचक्कवट्टी, - जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति २।३०
समुपज्जत्थे ।
७४. अष्टमे मरुदेव्यां तु नाभेर्जात उतक्रमः । दर्शयन् वर्त्म धोरणां सर्वाश्रमनमस्कृतम् ।
७५. तमाह वसुदेवांशं मोक्षधर्मविवक्षया ।
- श्रीमद्भागवत १।३।१३ वही ११।२।१६