Book Title: Jugaijinandachariyam
Author(s): Vardhmansuri, Rupendrakumar Pagariya, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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जुगाइजिणिदरिय
विभक्त है । चतुर्थ स्थान में अन्तक्रियाओं का वर्णन करते हुए भरत चक्रवर्ती व मरुदेवी माता का दृष्टान्त के रूप में नामोल्लेख किया है ।
भरत चक्रवर्ती लघुकर्मा, प्रशस्त मन वचन कायावाले, दुःखजनक कर्म का क्षय करने वाले, बाह्य तथा आभ्यन्तरजन्य पीड़ा से रहित चिरकालीन प्रव्रज्या, रूप करण द्वारा सिद्ध बुद्ध मुक्त हुए । चौथी अन्तक्रिया में मरुदेवी माता के विषय में कहा गया है कि वे लघु कर्मा एवं पर्याय मे परिपह-उपसर्गों से रहित होकर सिद्ध बुद्ध मुक्त हुई।
चतुर्थ स्थान के तृतीय उद्देशक में भरत नरेश को 'उदितोदित' कहा गया है । पाँचवें स्थान में प्रथम एवं अन्तिम तीर्थंकरों के मार्ग पाँच कारणों से दुर्गम बताये हैं ।
पंचम स्थान के द्वितीय उद्देश्य में कौशल देशोत्पन्न ऋषभदेव भगवान, चक्रवर्ती भरत, बाहुबलि, ब्राह्मी एवं सुन्दरी की ऊँचाई पाँच सौ धनुष की कही गई है।
षष्ठ स्थान में वर्तमान अवसपिणि के सात कुलकरों में ऋषभदेव के पिता नाभि कुलकर एवं उनकी माता मरुदेवी का उल्लेख किया है ।
नवम स्थान में अवसपिणि काल के नौ कोटाकोटि सागर प्रमाण काल बीतने पर भ. ऋषभदेव द्वारा चतुर्विध संघ की स्थापना का उल्लेख मिलता है ।
दसवें स्थान में दस आश्चर्यकारी घटनाओं में भगवान ऋषभदेव के समय की एक आश्चर्यजनक घटना का वर्णन मिलता है कि भगवान ऋषभदेव के तीर्थ में उत्कृष्ट अवगाहना वाले १०८ मुनि एक साथ एक ही समय में सिद्ध हुए थे।
चौथा अंग सूत्र समवायांग है । इस सूत्र में भगवान ऋषभदेव सम्बन्धी कुछ घटनाओं का उल्लेख हुआ है । समवायांग सूत्र के अट्ठारहवें समवाय में ऋषभपुत्री ब्राह्मी द्वारा अट्ठारह प्रकार की लिपि के सर्जन का वर्णन है । तेईसवें समवाय में ऋषभ का पूर्व भव में चौदह पूर्व के ज्ञाता तथा चक्रवर्ती सम्राट होने का उल्लेख मिलता है ।
चौवीसवें समवाय में भगवान ऋषणदेव को प्रथम तीर्थंकर के रूप में स्वीकार किया है । पच्चीसवें समवाय में प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के पञ्च महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं का निरूपण किया गया है।
छियालीसवें समवाय में ब्राह्मी लिपि के छियालीस मातृकाक्षरों का उल्लेख है। तिरेसठवें समवाय में भगवान ऋषभदेव का ६३ लाख पूर्व तक राज्यपद भोगने का, सत्तहरवें समवाय में भरत चक्रवर्ती के ७७ लाख पूर्व तक कुमारावस्था में रहने का, तिरासीवें समवाय में भगवान ऋषभदेव एवं भरत के ८३ लाख पूर्व तक गृहस्थावस्था के काल का तथा चौरासीवें समवाय में ऋषभदेव भरत, बाहबलि, ब्राह्मी एवं सून्दरी की सर्वाय ८४ लाख पूर्व की बताई गई है।
नवासीवें समवाय में अरिहंत कोशलिक श्री ऋषभदेव इस अवसर्पिणी के तृतीय सुषम-दुषम आरे के अन्तिम भाग में नवासी पक्ष के शेष रहने पर निर्वाण को प्राप्त हए ऐसा उल्लेख है। तथा भगवान ऋषभदेव और अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर का अव्यवहित अन्तर एक कोटाकोटि सागरोपम का बताया है । समवायांग सूत्र के अन्त में उनके पूर्व भव का नाम, शिविका नाम, माता-पिता के नाम, सर्व प्रथम आहार प्रदाता का नाम, प्रथम भिक्षा एक संवत्सर में प्राप्त हुई--इसका उल्लेख, केवलज्ञान वृक्ष न्यग्रोध , वृक्ष की ऊँचाई तीन कोस, प्रथम शिष्य, शिष्या भरत चक्रवर्ती और उनके माता-पिता तथा स्त्रीरत्न का नामोल्लेख मिलता है ।
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