Book Title: Jugaijinandachariyam
Author(s): Vardhmansuri, Rupendrakumar Pagariya, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 197
________________ १५६ जुगाइजिणिदचरिय एवं चिंतिऊण भणिया मरुदेवी--"एहि अम्मो ! जेण ते पुत्तस्स रिद्धि दाएमि।" ति भणिऊण मरुदेवीए . सह गंधवारणमारूढो सयलरिद्धीए चउरंगबलपरिवारिओ चलिओ भगवओ वंदणवडियाए भरहाहिवो । समवसरणदेसे य गगणतलं सुरसमूहेण उवयंतेण निवयंतेण निरंतरं विरायमाणं धयवर्ड पहयदेवदुंदुहिनिनाया पूरियदिसामंडलं पासिऊण भरहो भणियाइओ--"पच्छ अम्मो ! जइ एरिसी रिद्धी मह लक्खंसे वि ण अत्थि।" तओ तीए भगवओ छत्ताइछत्त पासिऊण आणंद-वसविहडियतिमिरपडलाए खवग-सेढिमारूढाए केवलवरनाणदंसणं समुप्पन्नं । तुटुं च झड त्ति आउयं । सिद्धिवरवसहिमुवगया पढमसिद्धो' ति काऊण देवेहिं सक्कारेऊण खीरोए छूढं कडेवरं। भरहो वि पत्तो समोसरणं पंचविहाभिगमेणं पवेसियतिपयाहिणं काउंजिणं कयकरयलंजलीओ एवं थोउं समाढत्तोवयणामय-निव्वाविय-सयल-धरवलउ । निय-जस-धवलिय-तिहुयणु वरमंगल-निलउ ॥१४१७।। पंच-वन्न-समवन्न-रेह-रेहिर-गलउ। केवल-नाण-दिवायरु जग-हिउ जग-तिलउ ।।१४१८।। उब्भडमयण-महाभड-भंजणु, मोह-मह-ल्ल-मल्ल-बल-गंजणु । तिहुयण-पणय-पाउ परमेसरु, जयइ जुगाइ-देउ रिसहेसरु ।।१४१९। सयल-सुरासुर-सिव-सुख-कारणु, दुत्तर-भीम-भवन्नव-तारणु । हत्थालंबणु नरइ पडतह, रिसहु सरणु संसारि भमंतहं ।।१४२०।। चउदेहो चउवयणो चउहा धम्म जियाण देसिंतो। उसहो जेहिं न दिट्ठो तेहिं हा हारिओ जम्मो ॥१४२१।। एवं जिणं थुणिय निसन्नो ईसाणकोणे भरहाहिवो । एत्थंतरे अद्धमागहाए जोयणनीहरिणीए नीसेसनरामरतिरिय-सत्थनिय-निय भासा परिणामपरिणामिणीए गिराए समाढत्ता तेलोक्कगुरुणा धम्मदेसणा। तं जहा-- धम्मो मंगलमउलं समत्थजियलोयसोक्खतरुबीओ। नीसेस-दुहानल-तविय-जंतु-निव्ववणघणसमओ ॥१४२२।। जं अत्थ-काम-मोक्खाण कारणं अवितहं इमो चेव । ता एयम्मि पयत्तो कायव्वो बुद्धिमतेहि ॥१४२३॥ सो पढमं सोयन्वो भावेयव्वो पुणो पयत्तेण । अह भाविऊण धणियं कायब्वो सुद्धीभावेण ।।१४२४।। जओ "इमो चेव मायाए, सो चेव जणओ एस चेव परमबंधवो, इमो चेव परमगुरुपसच्चियनिव्वाणगमणसंपट्ठिय भवियसत्थकंदुज्जओ मग्गो एय सहिया सव्वदाणेसु सुहिया जंतुणो एय विहणा जत्थ वा तत्थ वा गया दुहदंदोलिभायणं सव्वहा इमो चेव अणेगकिलेसायासदुहपउराओ संसारसागराओ समुत्तारेइ" त्ति । अवि य नारय-तिरिय-नरामरजाइ-जरा-मरणसलिलकलियम्मि । सारीर-माणसाणेगदुक्खपायालगंभीरे ॥१४२५।। दीहरवसणपरंपरभीम महामयरमच्छपडहत्थे । नाणाविहबाहिसमुच्छलतकल्लोलदुप्पेच्छे ।।१४२६।। अन्नाणपवणघोलिरसंजोय-विओयसावयाइन्ने । गुरुमोहावत्तभमंतविहल हीरंतबहुसत्ते ॥१४२७।। गुरुदोसवाडवानलदज्झंतासेससत्तसलिलोहे । अच्चुब्भडवियडमहाकसायभुयगाहिवरउद्दे ॥१४२८।। इय संसारसमुद्दे अणोरपारम्मि तत्थ निवडते । धारेइ जंतु निवहे धम्मो च्चिय तं दढं कुणह ।।१४२९।। जओ धम्मो धम्मो त्ति जए सुब्वइ सव्वेसु कुस्सुइपहेसु । सो पुण परिक्खियव्वो कणगं पिव तिहिं परिक्खाहिं ।।१४३०॥ कस-छेय-तावसुद्धं जह कणगं नेव विहडइ कयाइ। तह धम्मो वि न विहडइ कयाइ सुपरिक्खिओ गहिओ ।।१४३१।। जं पुण पवाहपडिया अपरिक्खियधम्मगाहगा हुँति । अपरिक्खियकणगं पिव विहडइ सो ताण फलकाले ॥१४३२॥ ता जह तस्स परिक्खा कायव्वा तह सुणेह भो भव्वा। धम्मत्थिणेह पढमं देवय-गुरु-धम्मतत्ताणि ।।१४३३॥ १. पर परम महा पा० । २. विविह पा०। ३. मुच्चइ जे०। ४. जे उण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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