Book Title: Jugaijinandachariyam
Author(s): Vardhmansuri, Rupendrakumar Pagariya, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 218
________________ भरहचक्कवट्टिस्स वण्णओ १७७ कंठग्गह-चुक्कु थोर-थणहरल्हसिउ। मयणु विमुद्धह भुल्लु धसक्किण नं पडिउ॥१७३३।। वलिवि पयग्ग-विलग्गु मयणु तं विण्णवइ। जिम्ब जिम्ब सा अणुमण्णइ तिम्ब तिम्व संचरइ ||१७३४।। लद्ध-पसाउ नियंवि* रमिवि नाहिहिं चडइ। अहव नमंतह कवण रिद्धि जं न संपडइ ॥१७३५।। जसु मयणु वि जग-जगडणु दासत्तणु वहइ । तसु मुद्धहि महि-मंडलि को भल्लिम लहइ ।।१७३६।। विहि विम्हिउ मणि चितइ किम्ब मई' एह घडिय। घडिवि घडिवि निम्विन्नउ अन्न न संपडिय ।।१७३७।। कन्निहि कुंडल-मंडिय चलणिहिं नेउरइ। नयणिहि मसि-समलंकिय हत्थिहि' कंकणइ ॥१७३८।। दंत-कंति-लज्जंतु हारु थणहरि ढुलइ। कडियड-कंति-विणिज्जिय मेहल। महि12 भमइ ।।१७३९।। इय आहरणु विभूसिवि थक्किय" तासु तणु । तिहुयणि तुलइ चडावइ खोहइ मुणिहि मणु ।।१७४०।। तसु सोहग्गु" अउव्वा काई तुंगिम धरइ। जि जगडिउ नरु मुज्झइ न जियइ न वि मरइ ॥१७४१।। उब्भड-नयण-पलोयण दर-दरिसिय-दसण। विविह-विलास-नियंसिय चिणंसुय-वसण ।।१७४२।। सा काइ वि तसु चंगिम अंगि पवित्थरिय। जीया जणइ रण रणउ मुद्ध मणि संभरिय ।।१७४३।। सुरसरि-संभम-कणय-कमल2-सम-वन्नियहि । जिभारंभल्ह-संत-सुवण्ण-कडिल्लियहिं ॥१७४४।। बहुविह-वन्नय-पीसण-मयण-घरट्टियहिं । को तसु तुंगिम पावइ तरुणि-तरट्टियहिं ॥१७४५।। केस-कडप्पु-विडप्पु नासइ26 तम-भर-भरिउ। तसु पव्वण-मुहयंदह कवलणि उत्थरिउ ॥१७४६।। हारमिसिण नं गह गणु कंठग्गहु करइ। कुम्मुवि काम कयत्थिउ पय तलि संचरइ ।।१७४७।। भमर माल मुह-गंध-लुद्ध पक्खई भमइ । हंसु2 वि तसू गइ सिक्खहिं जिम जिम चंकमइ ।।१७४८।। सर-महुरिम कलयंठि वंठि सिक्खण-मणिय । पइदिणु तसु पय सेवहिं अच्छइ अक्खणिय ॥१७४९।। जिम्व जिम्व क्यण-वियड्ढिम मुद्धहिं वित्थरइ। तिम्व तिम्व कामु कयत्थिम निय चित्ति ण धरइ ।।१७५० ।। जिम्व जिम्ब भोलिम मेल्हइ36 पोढत्तणु बहइ। महिलहं मज्झि पहिल्लिम37 तिम्ब तिम्व सा लहइ ।।१७५१।। उभय-पास-निवडत-चारु-चामर-जुयलु। नं जंगम-थल-कमलिणि-लीला-करकमलु ॥१७५२॥ उवरि धरिय सिय छत्त सहीयण परियरिय। ललइ ललिय जिम्व मुद्ध विविह-विब्भम-भरिय ।।१७५३।। कप्पूर-धूलि-धवला धवलिय-धरमंडला ससिकर ब्व । अमयरस-सरणि-सरिसा सरंति से दिट्ठि-विच्छोहा ॥१७५४॥ सो धण्णो कोइ जुवा तुट्ठो मयरद्धओ धुवं तस्स। जस्सेसा मुद्धमुही उण्णय-वच्छत्थले रमिहि ।।१७५५।। भरहेण भणियं--"नारय ! महइ वण्णणा।" नारएण भणियं-"एवमेयं नन्नहा मन्नियव्वं । यतः: वाजिवारणलोहानां काष्ठपाषाणवाससाम्। नारीपुरुषतोयानां अंतरं महदंतरम् ॥१७५६।। १. गह चक्कु थो० जे०। २. चलि वि० जे०, पुणु वि पा० । ३. सा चलइ पा०। ४. विरमवि जे० । ५. हहइ जे०। ६. मुद्दहि जे०। ७. मइ पा०। ८. नयणेहिं पा०। ६. हथिहिं जे०। १०, थणहरू ढ०। ११. मेहले जे० । १२. वहि पा० । १३. ईय जे०। १४. थक्किया ता० जे०। १५. यणु तु० जे०। १६. तुलहि जे०। १७. सोहग्ग अ० पा० । १८. अउद्ध काई जे०। १६. रमइ पा०। २०. दरदरि दरिसि० जे०। २१. जीए ज. पा० । २२. कम्बल पा० । २३ . भारं भल्लसंत पा० । २४. विह वन्न० जे०।२५. तुस तुंगिभपा० ।२६. नाइ पा० । २७. कवलणि जे० । २८. नं गहु गणु जे० । २६. काम् क्रय पा०। ३०. संचरथ जे०। ३१. भमरुमाल जे० । ३२. हंस वि पा०। ३३. जिम्ब जिम्ब पा०। ३४. पयदि० जे०। ३५. अखणिय जे०। ३६. मिल्लइ जे०। ३७. पहिल्लम पा०। ३८. कमलकर जे०। ३६, सहियण जे०। ४०. अमिय पा०। ४१. जुया जे०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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