Book Title: Jugaijinandachariyam
Author(s): Vardhmansuri, Rupendrakumar Pagariya, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 258
________________ भरहबाहुबलिवण्णणं २१७ कुमरु पभणइ निसुणि सारथि,1 महु आण तायह तणी, ताय ताय-पय-पउमु अंतरि । जइ चित्ति मह मरण-भउ, वसइ एत्थु बहु-सुहड-संगरि । पर एत्ती अवसेरि मणि, जं रणि सक्खि न ताउ। सुयण न नयणिहिं सच्चविय, जणणि न किउ पणिवाउ॥२४२३।। अन्न सारहि मज्झ मणि चिंत सा सल्लइ सल्लु जिम्व', दहइ देहु रइ हरइ जरु जिह । तो सेवउ अतुल-बल, गुरु-पयावु निय-ताउ मं किह। इह जुझंतउ अज्जु हउं, सारहि कहिं वि न मंतु। गय-घड विहडावितु मई, जइ रणि ताउ नियंतु ।।२४२४।। समरि तिसियह वयरि-करि-वारि, घोटुंतहं घडघडहं,10 मज्झ समरि पच्चक्खु पेक्खउ । जं ताउ न वि जाउ रणि, तेण मज्झु मुह-राउ दीणउ ।। सई दिट्ठह कहियह परिण, कज्जह अंतरु होइ। अवि उप्पन्नउं सुरय-सुहु, कहिउ कि सक्कइ कोइ ॥२४२५॥ नाहि-कुलयर-गब्भ-संभूय, तेलोक्क-तामरस-रवि, जिणु असेस-सुरसत्य-संथुउ। पिउ तायह ताउ महु, सुर-करिंद-कर-थोर-थिर-भुउ ॥ पिउ लज्जावउं जइ समरि, तो हउं होमि न कोइ। सो सूउ जाएण जि जणउ, तो सुर-भायणु होइ ।।२४२६॥ ए (उ) जंपिवि तेण मण-मज्झि, स-चराचर भुयण-गुरु, ताय-ताउ अप्पह पियामहु । परमेसरु परमगुरु, थुणिउ रिसहु तिहुयण-सुहावहु । एत्थ भवंतरि अन्नभवि, परइ परारइ देव । खणु वि म फिट्टउ मह मणह, तुह पय-पंकय-सेव ॥२४२७।। देव-दाणव-जणिय-पय-सेव, सुपसत्थ-मंगल-निलय, भुवण-तिलय-दुग्गय-निवारय । करुणामय-मयरहर, पहु सरन्न संसार-तारय ।। जइ पहु लब्भइ मग्गियउं, ता एत्तिलडं करेज्ज। भवि भवि महु निय-पय-कमलि, अविचल भत्ति विहिज्ज ॥२४२८॥ सयल-तिहुयणि पयड-वावार, सन्नाण-12दसण-चरण-रयण-किरण-तम-पसर-नासण । सचराचर-जीव-हिय, जयहि देव सुपसिद्ध-सासण ।। ण मणिवइ धणहं करि,करडि-करडि सर-लक्ख तिहयण धवलउंसिय-जसिण, रणि निज्जिविपडिवक्ख ।२४२९॥ जम्मि धणुसय-पंच16 उच्चत्तु घण वरिसिहि वंछियउं, रस-विसेस जहिं सुरस-भक्खहं" । जीवंति जहिं जण सुहिय, चउरासी वर-पुव्वलक्खहं । सो जिणवरु लक्खण-निलउ, सरणागयहं सरन्नु । रिसहेसरु मह मणि वसउ, भवि भवि देउ म अन्नु ।।२४३०॥ भुवण-भूसणु भुवण-साहारु, भुवणेसरु भुवण-गुरु, भुवण-भाणु भव-भमण-भंजणु । परमेसरु परम-पय-वद्ध-लक्खु जो जिणु निरंजणु॥ पढम पयावइ पढम जिणु०, जण-मण-जणियाणंदु। सरणु असरणह होउ महु, सामिउ पढम-जिणिदु ॥२४३१॥ एव पणमिवि ति-जग-नाहस्स संनद्ध मणहरु पवरि, रहि चडेवि चंचल-तुरंगमि । सारत्थ22-सारहि भणइ, सज्ज होह चल-समर-संगमि॥ गय-घड-विहडावण-मणउ, जिव पंचाणणु सीहु। अनिलवेगु पर-बलि पडिउ, निय-जीवियह निरीह ॥२४३२।। ताव पयडिय-हक्क-पोक्केहि दट्ठोट्ठिहिं रिउ-भडिहिं, घोर-रोस-रत्तंत-नेत्तहिं । आयड्ढिय-धणु-गुणेहिं, वण-माल-मालिय-नहग्गिहिं ।। चउ-पासिहिं 23 पहरंतेहिं, सो सुर-वहु-मण-चोरु। मिग-लुद्धिय-हेवाइयहिं24, वेढिउ सिंह-किसोरु ॥२४३३।। १. सारच्छ जे० । २. तणिय ता० पा० । ३. पयम जे०। ४. एत्थ जे०। ५. सयण जे०। ६. सल्लय सल्लु पा० । ७. जिह पा०।८. समर ति० जे०।६. तिसयहं जे०। १०. पडघड० जे०। ११. पच्चक्ख पे० पा० । १२. वार वरनाण दंसण पा० । १३. तुहं मणि जे०।१४. रिणि नज्जि वि पा० । १५. निज्जिव पा० । १६ . पंचउव्वत्तुषण पा०। १७. सरसभ० जे०। १८. भवे वि देउ मान्नु पा०। १९. भुसण भयणु सहोरु जे०। २०, पढम निव जण० जे० । २१. संनाहमण० जे० । २२. सारच्छ सा० जे०। २३. पासिउ पह० जे०। २४. हेवाहिएहिं जे० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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