Book Title: Jugaijinandachariyam
Author(s): Vardhmansuri, Rupendrakumar Pagariya, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 248
________________ भरतबाहुबलिवण्णणं २०७ गुरु संसार महण्णवतारणु मणुयसुरासुर सिवसुहकारणु । संपइ अम्ह सरणु रिसहेसरु भंजउ सयलु भरहु भरहेसरु ॥२२९९।। एउ जंपेवि समप्पिवि अप्पर भर्णाहं कुमर ! पणमिय परमप्पउ । ___ सामिय ! देहि दिक्ख भवसायरतारण कारण नाणदिवायर ॥२३००।। धम्मधुरंधरु तिहुयणमणहरु दुह दंदोलि दवानल जलहरु । दिखि वि कुमरु सव्वि जग सारउ विहरइ महियलि रिसहु भराडउ ॥२३०१।। भरह-बाहुबलिवण्णणं साहिय भरहो भरहो वि अण्णया राय-मंति परियरिओ। उवरोहिय-भड-भोइय-विज्जाहरदूयसयसहिओ ।।२३०२।। वित्थिण्ण थिरेवर' कणगनिम्मिए मंडवे समारूढो । वारविलासिणि करविहुय- चामरो पवरसिंगारो ॥२३०३।। पुव्वाभिमुहो सिंहासणम्मि उदयाचल व्व दिणनाहो । सहइ निसण्णो सारय-सरिसजसो जयपयासो ॥२३०४।। गायण-वायण-नच्चण-तालायर-मल्ल-मुट्ठियनराण । सुरगुरुसरिसाण तहि बुहाण न हु लब्भए अंतो ।।२३०५॥ संधियर-सिट्ठि-सत्थाहपमहलोयाण मुणइ सो संखं । जो मुणइ सायरं जलं गंगानइवालुयकणे वा ।।२३०६॥ सेवागयपणयमहानरिंदमणि-मउड-गलियमालाहिं। अच्चिज्जइ भरहाहिवपयकमलं लच्छि आवासं ।।२३०७॥ वारविलासिणिमणहरमणि-नेउर-रणज्झणारव-रवेण। जत्थ सुभासियसद्दो न मुणिज्जइ मागहजणस्स ।।२३०८।। मयणाहि-कद्दमुद्दाम-परिमलायड्ढियालिवलएहिं। संछण्णं गयणयलं पाउसकालं पिव घणेहिं ।।२३०९।। सहयारमंजरीओ मयगलगंडत्थले वि मोत्तूण। सेवंति जत्थ भसला कामिणि मुहकमलवंद्राणि ॥२३१०।। आसन्नट्ठियकामिणि-कवोलपडिबिंबियम्मि पहुवयणे। वच्छी पुत्तो आयरिस-दरिसणं कुलाइ कप्पो त्ति ॥२३११।। उच्छलियबहुलकप्पूर-धूलि-धवलिय-नहंगणाभोए। खीरोयतुसारनिभो न मुणिज्जइ चामरुप्पीलो ॥२३१२।। पुवभवावज्जियसुकयकम्मसंजायचितियत्थस्स। नरवइणो अत्थाणे भण कस्स न विम्हओ होइ ॥२३१३।। । अणुरत्तभत्तसोलसजक्खसहस्सेहि विहियपरिरक्खो। पच्चक्खो विव सक्को सहागओ सहइ नरनाहो ॥२३१४।। एत्थंतरम्मि सहसा कविल'जडाजूडकंतिदुप्पेच्छो। छत्तियभिसियगणेत्तियगललंबिरबंभसुत्तधरो॥२३१५।। गयणंगणाओ बहुसमरकारओ नारओ समायाओ। कयसम्माणो भरहाहिवेण सेसेण य जणेण ।।२३१६ ।। नियभिसियाए निसण्णो दिसोदिसिं दिण्णतरलनयणेण। दिट्ठो भरहनरिंदो एरिसगुणसंगओ संतो ।।२३१७।। नीसेसनरनाहमज्झट्ठिओ, असणिभयपुंजीकयकुलसेलमज्झगओ व्व सुरगिरी, नियगुणेहि पिव सरीरारक्खियपुरिसेहि परिवुडो, वारविलासिणीहिं समुद्धव्वमाणचारुचामरो, सपायपीढसिंहासणत्थो, अमयफेणसंकाससियवत्थनियत्थसरीरो, वीयमयलंछणसंकासाए' रिक्खावलीए व्व हारलयाए" कयमुहपरिवेसो मणिकुट्टिमसंकंतनियदेहप्पहापडिबिंबेणाणुरागेणे व पुहईए हियएण वुब्भमाणो, समत्थतियलोगभोग मुवणीयाए वि असाहारणाए नरिंदलच्छीए समालिंगियसरीरो, अपरिमियजणसंगओ वि एक्को असंखगय-तुरय-पक्कपाइक्कसाहणो, विकरालकरवालसहाओ नियमंदिरदेसत्थो विस13मुक्कंतभुवणयलो, सीहासणत्थो वि चक्करयणनिसण्णो, निद्रवियासेससत्तुकदिधणो वि जलंतपयावानलो, वित्थिण्णलोयणो वि सुहमदिट्ठी, महादोससंगओ वि समत्थगुणगणालंकिओ, कुप्पई वि दइया-यण-वल्लहो, सुविसुद्धसहावो वि कण्हचरिओ, अकरो वि हत्थट्रियसयलपुहइमंडलो। १. थिरेमणिकणयनि. पा०।२. करि विह० पा० ।३ . जसपायसो पा० । ४. नत्थि पावा० पा०। ५. मयजलगंड० पा०। ६. स दायणं कुलइ कप्पो० पा० । कुणइ कप्पो जे० । ७. कवलि (रि) पा०। ८. ओ तेण पा०। ६. संका परिक्खाव० पा०। १०. हरलया पा० । ११. वुज्झमाणा सम० पा० । १२. भोगमुविणीया० पा० । १३. विसमक्कंतभुवनभुवनयलो पा० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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