Book Title: Jugaijinandachariyam
Author(s): Vardhmansuri, Rupendrakumar Pagariya, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 206
________________ सिरिरिसहसामिवण्णणं १६५ . परमरहस्सम्मि' सीलं समत्तगणिपिडगझरियसाराणं। परिणामियं पमाणं निच्छयमचलं पमाणाणं ।।१६५२॥ एयं जइ तुब्भे सुहलोलुया दुहभीरुणो ता तह कह वि करेह जहेस सुहपरिणामो पइ दियहं पवड्ढमाणो' भवइ। जओ--असारो एस संसारो विसमा कम्मगई किंपागफलोवमा' मुहमहुरा परिणामदारुणा विसया, निविड बंधणं बंधवा, पासो घरवासो, विओगावसाणा पियजणसमागमा, गिरिनइपयपूरो विव दिट्ठनळं जोव्वणं, करिकन्नचंचलाओ सव्वरिद्धीओ सडणपडणविद्धंसणधम्म सरीरयं, सुरासुरानिवारणिज्जो सया समासन्नो मच्चू, अकयसुकयाण सुलहाओ पए पए दुग्गइदुहपरंपराओ, नाण-दंसण-चरणलक्खणो पयडो चेव सुहसाहणो'वाओ कुसग्ग-जलबिंदुचंचलं संसारियसुहं तव्विवरीयं च सिद्धिसुहं तहवि कम्मविसवियारघारिया तयत्थं न उज्जमंति पाणिणो। एयमायन्निऊण परमसंवेगमुवागया सिरिप्पहसेट्टिपमुहा। पव्वइया भगवओ समीवे बहवे जंतुणो। पुणो वि परोवयारनिरएण पुट्ठो तीत्थयरो गणहारिणा--"भगवं! जीवाणं को सत्तू ?" भगवया भणियं--"गणाहिव ! जीवाण दुविहो सत्तू । दव्वसत्तू भावसत्तू य। दव्वसत्तू य अवयारमओ । भावसत्तू पुण धम्मं पइ पमाओ। एस णं सग्गापवग्गपुरमग्गगला जीवाणं तुरियतुरंगमो संसारवाहियालीए, परिपंथीसयलसुहाणं, मित्तं वामोहस्स, खेत्तं सयलाणत्थपरंपरासस्साणं, पउणा पयवी दुग्गइ पुरवरीए, पमायपरिगया जीवा पेक्खंता वि सिवसाहणोवायं लभ्रूण वि सुगुरुसामग्गी सुणंता वि अचिंतचिंतामणि सन्निहं जिणधम्म नियंता वि सक्खं सुह-दुहाण विवागं तह वि धम्माणुटाणेसु निरुज्जमा चेव पाणिणो। तेसिं च पमायपरिणामो अणेगभवपरंपरासु कय कडुयविवागो। यतः-- श्रेयो विषमुपभोक्तुं क्षेमं भवे क्रीडितुं हुताशेन । संसारबंधनगतै न तु प्रमादः क्षेमः कर्तुम् ।।१६६५३॥ अस्यामेव हि जातौ नरमुपहन्याद्विषं हुताशो वा । आसेवितः प्रमादो हन्याज्जन्मांतरशतानि ॥१६५४।। यन्न प्रयान्ति पुरुषाः स्वर्ग यच्च प्रयान्ति विनिपातम् । तत्र निमित्तमनार्यः प्रमाद इति निश्चितमिदं मे ॥१६५५।। संसारबंधनगतो जाति-जरा-व्याधिमरण-दुःखातः । यन्नोद्वेजिते (?) सत्वः सोप्यपराधः प्रमादस्य ।।१६६५६।। आज्ञाप्यते यदवशः तुल्योदर-पाणि-पाद-वदनेन । कर्म च करोति बहुविधमेतदपि फलं प्रमादस्य ।।१६५७।। इह हि प्रमत्तमनसः सोन्माद वद निभृतेन्द्रियाश्चपलाः । यत् कृत्यं तदकृत्वा सततमकार्येष्वभिपतन्ति ।।१६५८॥ तेषामभिपतितामुद्भान्तानां प्रमत्तहृदयानाम् । वर्द्धन्त एव दोषा वनतरव इवांबुसे केन ॥१६५९।। दष्टवाऽप्यालोकं नैव विधभितव्यं तीरं नीता पि भ्राम्यते वायना नौ :।। लब्ध्वा वैराग्यं भ्रष्टयोगः प्रमादात् भयो जीवः संसृतौ बंभ्रमीति ॥१६६०॥ एयं पि सोऊण अणेगे जीवा पडिबुद्धा समोगाढा पढमपोरसी। एत्थंतरे आढयपमाणो विसुद्धकलमसालिकणविणिम्मिओ सुरपक्खित्तसुगंधगंधपूरियदियंतरो रयणथालगओ पहाणपुरिससमुक्खित्तो भरहाहिवकारिओ देवदुंदुहिनिनायभरियबंभंडमंडलो समंतओ पुरजणपरिवारिओ मंगलमहलरमणीयण समणगम्ममाणमग्गो पुव्ववारेण पविट्ठो बली ठिया धम्मदेसणा पयाहिणी काऊण भगवंतं पूरओ होऊण तिभागे काऊण तित्थयरपायपूरओ तिक्खत्तो पक्खित्तो बली। तस्सद्धं नहयले चेव देवेहिं गहियं अद्धद्धं भूमिगम भरहाहिवेण अवसेसं पागयजणेण बलिमाहप्पं पुण पुव्वपवत्ते वि आमए पसमइ नवे पुण छम्मासे जाव न करइ। भणि यं च-- राया व रायमच्चो तस्सासइ पउरजणवओ वा वि। दुब्बलिखंडियबलिछडियतंदुला णाढयं कलमा ॥१६६१।। भाइयपूणाणियाणं अखंडफुडियाण फलगसरियाणं। कीरइ बली सुरा वि य तत्थेव छहंति गंधाई ।।१६६२।।अ १. रहस्समीसीणं पा०। २. इ एवं भो जइ पा०। ३. पवड्ढमणो पा० । ४. वमा महु महुरा पा०। ५. णाम विसया दारुणा पा०। ६. निवडणं पा० । ७. चेव सिवसाहणो पा०। ८. चेव तेसिं जे०। ६. रासु कडुय पा० । १०. रमणीयरमणीयण पा०। दुच्चलिथंडियबलिछ० जे०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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