Book Title: Jugaijinandachariyam
Author(s): Vardhmansuri, Rupendrakumar Pagariya, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 196
________________ सिरिरि सहसामिवण्णणं मन करि चित्ति तुहुं खेउ- सो देउ देवाहिवई, पुज्ज पाउ तिहुयण-नमंसिउ । नरु नत्थि इह भुवणयलि, जो समत्थु तसु रिद्धि दंसिउ ।। निय-संकप्प-वियप्प-किय-दुह - दंदोलि निवारि । तुह पुत्तह सम तुल्ल-सिरि, को पावइ संसारी ।। १४०९ ।। जासु सुरवर-कोडि न कयाइ- aise-कर रत्ति दिणु, मुयइ पासु सुपसन्न - माणस । जसु रिद्धि-वित्थरु नियवि, होंति परम जोगिय वि लालस' ।। सो परमप्पा परमगुरु, गरुय-पयावु कयत्थु । तिहुयण - सिरि- सिर- सेहरउ, जंगम - तित्थु पसत्थु । । १४१०ः छत्त चामर पवर कंकिल्लि'-- सिंहासणु धम्मझउ, धम्म-चक्कु सुर - विहिय दुंदुहि । सुर-पेरिय नहयलह, कुसुम-वुट्ठि मंडे दह दिहि || कणय-कमल"-रिछोलि-ठिउ, जसु पय-कमलु विहाइ । तसु तुह पुत्तह एक्कि मुहि, रिद्धि कि वन्नण जाइ ।। १४११ । । जो सुवयणिण सयलि जिय- लोइ- सुय' - संपय वित्थरइ, सुहिय होंति जण जसु पसाइण । सो अप्पणि दुक्खियउ, केम होइ किं तुह विसाइण ।। जसु पय-छायहं वीसमइ, भगवइ भुवणु असेसु । सुहु वियरइ दुहु निद्दलइ, निहणइ कम्म- किलेसु ।। १४१२।। भिक्ख भमडइ सयल- रिद्धिल्ल- पण महिं पइ दियहु, निलउ नत्थि सो निलउ सव्वहं । निन्नेहउ निद्ध- छवि, चत्त-सोक्खु सुहु देइ अन्नहं ॥ लोउत्तरु तु नंदण, चरिउ न चिंतण जाइ । जइ जाणेसइ सो जि पर, अन्नह चित्ति न ठाइ ।। १४१३ ।। सक्कु संभम भरिउ वेगेण -- उत्तरवि रावण, भूमि भमिरु तुह पुत्तु पणमइ । वरवसणु तसु निवसणह, सुरसमूहु पय-कमलु सेवइ ॥ अंब न जाय' चितणा, तुह पुत्तह माहप्पु । सो तिहुयण-कारण-पुरिसु, चित्ति म करहि वियप्पु ।। १४१४ ।। एउ निसुणिवि भणइ मरुदेवि भरसर परं भणिय' गुरुय रिद्धि नणु मज्झ पुत्तह । निक्कारण कि हवइ 10 तेण मज्झ संदेहु चित्तह ॥ - निबंध ध हवइ, एउ पसिद्ध 11 लोइ । गुलगुलियां नासि मिलयई, किं मुहु गुलियउ होइ ।। १४१५ ।। एत्यंतरे जमगसमगं समागया दोन्नि निउत्तपुरिसा । एगेण पणमिऊण विन्नत्तो भरहाहिवो -- "सामि ! सचराचरबंधस्स तिहुयणगुरुणो पढमतित्थंकरस्स रिसहसामिणो केवलवरनाणदंसणं समुप्पन्नं । बीएण भणियं -- "देव ! आउहसालाए जक्खसहस्साहिट्ठियं चक्करयणं समुप्पन्नं । तओ भरहेण चितियं -- 'केह वि ताव पूया कायव्वा ? किं पढमं तायस्स करेमि उयाहु चक्करयणस्स ? जाओ दो चित्तो भरहाहिवो । तओ चितिअं भरहेण—“अहो मे मूढया ! अहो मे अयाणुयत्तणं ! अहो मे अविवेओ ! जेण मए तिहुयणगुरुपरलोगसुहनिबंधणो । इह लोग सुहनिबंधणेण चक्केण सरिसो ताओ दिट्ठो । एवं पच्चागयसंवेगो । ताम्मि पूइए चक्कं पुइयं पूयणारिहो ताओ। इहलोइयं तु चक्कं परलोगसुहावही ताओ ।। १४१६॥ १. लालसु जे० । २. पवर कंकेल्लि पा० । ३. ६. सुह संप० पा० । ७. जा चित० पा० । ८. ११. पसिद्धा होइ जे० । १२. गुलियउं पा० । १५५ Jain Education International कमलि रिं० पा० । ४. वयणेण पा० । ५ सयल जि० । निसुण वि जे० । ६. भरसर भणिय पर पा० । १०. वह जे० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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