Book Title: Jugaijinandachariyam
Author(s): Vardhmansuri, Rupendrakumar Pagariya, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 199
________________ १५८ जुगाइजिणिदचरियं धम्मोवग्गहदाणं सज्झायझाणसंजमरयाणं । असणवसणाइसुद्धं जं दिज्जइ संजयजणाण ||१४६४।। तं पि उवग्गहदाणं चउभेयं आगमे समक्खायं । दायगगाहगसुद्धं सुद्धं तह कालभावेहिं ।।१४६५।। दायगसूद्ध भण्णइ जो दाया देइ नाण-संपन्नो। अनियाणो कम्मक्खयमुट्रिओ पवरसद्धाए ।।१४६६।। गाहगसूद्ध भण्णइ पंचमहव्वयधरो उ जो साहू। छज्जीवकायरक्खणनिरओ दमितिदियकसाओ।।१४६७।। पत्तविसूद्धिविहीणं जं दाणं होइ बहुपयारं पि। तमभूमीए बीयं च होइ न ह बहुफलं दिन्नं ॥१४६८॥ एक्कं पि मेहउदयं पत्तविसेसेण बहुरसं होइ। उच्छुम्मि महुरसायं लिंबम्मि य कडुयसायं तु ॥१४६९।। इय एवमाइ सव्वं सम्मं परिभाविऊण हिययम्मि। काऊण पत्तसुद्धि दायव्वं सव्वहा दाणं ।।१४७०।। भणियं च-- आरंभनियत्ताणं अकिणंताणं अकारविताणं । धम्मदा दायव्वं गिहीहिं दाणं सुविहियाणं ॥१४७१।। तं जाण कालसुद्धं जं जइदेहोवयारकालम्मि। दिज्जइ जओ अकाले दिन्नं न करेइ किंचि गुणं ॥१४७२।। भणियं च-- काले दिन्नस्स पहेणयस्स अग्यो न तीरए काउं। तस्सेव अथक्कपणामियस्स गिण्हंतया नत्थि ।।१४७३।। कालम्मि कीरमाणं किसिकम्मं बहुफलं जहा होइ। इय दाणं पि हु काले दिज्जतं बहुफलं होइ ।।१४७४।। भन्नइ संखेवेणं भावविसुद्धं पि संपयं दाणं । जो सद्धा सुद्धमणो अट्ठमयट्ठाणपरिहीणो ।।१४७५।। कयकिच्चं मन्नतो अप्पाणं जं मए सुपत्ताणं। दिन्नं दाणं संपइ पत्तं धण-जम्मसाफल्लं ।।१४७६।। तिम्स जस्स गिहिणी भावा एवंविहा मणे हुति। तं होइ भावसुद्धं दाणं कम्मक्खयनिमित्तं ।।१४७७।। संप सीलं भन्नइ पंचासवविरमणा इओ धम्मो। आजम्मनिरइयारो दंडन्ति य विरइपज्जंतो॥१४७८।। पाणबह-मसावाओ अदत्त-मेहुण-परिग्गहारंभो। पंचासवा इमे खलु पन्नत्ता तित्थनाहेहिं ।।१४७९।। पढम खल सीलंगं जा जीवदया असेसजीवाणं । एगिदिय-बेइंदिय-तिय-चउ-पंचिदियाणं च ॥१४८०।। महमस्स-बायरस्स य जावज्जीवाए अलियवयणस्स । जा विणिवित्ती निच्चं बीयं सीलंगमेयं तु ॥१४८१।। जा जीवं जो साहू तणमेत्तं पि हु न गिण्हइ अदत्तं । सो दत्तादाणकयं पावं न कयाइ बंधेइ।।१४८२।। नवबंभगुत्तिगुत्तो मण-वइ-काएहिं चयइ जुवईओ। तिरि-मणु-सुरीओ सो खलु चउत्थसीलंगवं पुरिसो ।।१४८३॥ जो संतोसनिसन्नो परिहरइ परिग्गहं पहापावं । सो न परिग्गहजणियं किलिट्टकम्मं समज्जिणइ॥१४८४।। फासाइइंदियाणं कुपहपयट्टाण कुणइ जो रोहं। कोमलफासे न महइ न य दूसइ कक्कसे फासे ॥१४८५।। जेण निरुद्धं लुद्धं रसणं रस-लंपडं पयट्टतं। सो जिभिदियजणियं पावं न कयाइ संचिणइ ।।१४८६।। जो न सुयंधे रागं न वि दोसं जाइ दुरभिगंधम्मि। भावइ वत्थुसहावं जित्तं घाणिदियं तेण ॥१४८७।। दढ ण सुंदराई रुवाइ न जाइ तेसु अणुरागं । इयरेसु वि न वि रोसं वसीकयं तेण नियचक्खं ॥१४८८ ।। जो न वि वच्चइ रायं न वि रायं मओ य कक्कस-सरेसु । सोइंदियाभिहाणं सीलंग निम्मलं तस्स ।।१४८९।। इय पंचिदियनिग्गहरूवं सील मए समक्खायं । संपइ कसायविसयं सीलंगं संपवक्खामि ।।१४९०।। खंति-सलिलेण सित्तो पजलंतो कोहवणदवो जेण। सो पसमसिरिसमेओ अप्पपरसुहावहो होइ।।१४९१।। भंजतो धम्मवणं अट्टमयट्ठाणमाणमत्तगओ। जो मद्दवंकुसेणं कूणइ वसे तस्स सीलंगं ।।१४९२।। १. बहुफलं पा०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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