Book Title: Jugaijinandachariyam
Author(s): Vardhmansuri, Rupendrakumar Pagariya, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

Previous | Next

Page 179
________________ १३८ जुगाइजिणिंद-चरियं मडयपूया पयट्टा। सामिस्स सरीरगं जीवविप्पजढं गोसीसचंदणकट्रहिं देवेहि दड्ढेल्लयं तप्पभिई लोगे वि मडयदाहो पवत्तो। थूभा वि भाउयस्स भरहेण कया तओ लोगे पयट्टा । भट्टारए कालगए देवेहि आणंदंसुवाओ कओतप्पभिइं लोगो वि इट्टविओगाइसु रोइउमारद्धो । इच्चेवमाइसव्वं सयलं जगपियामहेण उसहसामिणा पाएण उप्पाइयं पच्छा लोगे पयर्टे । नगु कहसावज्जमिणं सिपाइ पयट्टियं जिणिंदेण । सयलजगजीवसुहएण धम्मपुरिसेण रिसहेण। ॥११७६।। भण्णइ न एत्थ दोसो, सुहपरिणामस्स लोगनाहस्स। दरदोससंभवे वि हु अणेगगुणकारणत्तणओ ।।११७७।। भणियं च वरबोहि लाभओ सो सब्वुत्तमं पुण्णसंजुओ भयवं। एगंतपरहियरओ सुहाणुबंधो महासत्तो ॥११७८।। जं बहुगुणं पयाणं' तं नाऊणं तहेव दसइ। ते रक्खंतस्स तओ जहोइयं कह भवे दोसो ।।११७९।। तत्थ पहाणो अंसो बहुदोसनिवारणा उ जगगुरुणो। नागाइरक्खणे जह कड्ढणदोसे वि सुहजोगो ।।११८०।। गड़ातडम्मि विसमे इटुसूयं पेच्छिऊण कोलंतं । तप्पच्चवायभीया तयाणणदा गया जणणी ।।११८१।। दिवो य तीए नागो तं पइ इंतो दुओ य खड्डाओ। तो कढिओ तओ तह पीडाए विसुद्धभावाए ॥६१८२।। एवं च एत्थ जुत्तं इहराहियदोसभावओ नत्थो । तप्परिहारेणत्थो अत्थो च्चिय तत्तओ नेओ ।।११८३।। एवं बहदोसहरं सिप्पाइ विहा णमो जिणिदस्स । उचियं चिय विन्नेयं जियाण परिणामसुहहेऊ ॥११८४।। सिप्पाईण विहाणं पयाण गुणकारणं ति काऊण । इसीसि सदोसं पि हु भणियं तेलोक्कनाहेण ॥६१८५।। उसहसामिस्स महानिक्रवमणं से य उसहे कोसलिए पढमराया पढमभिक्खायरे पढ़मजिणे पढमतित्थयरे, दक्खे दढपइन्ने पडिरूवे अल्लीणे भहए विणीए वीसं पुव्वसयसहस्साई कुमारवासमझे वसित्ता, तेवढेि पुव्वसयसहस्साइं रज्ज वासमझे बसेऊण, लेहाइयाओ, गणियप्पहाणाओ, सउणस्यपज्जवसाणाओ बावत्तरि कलाओ अन्नं पि जं पयाणपरिणामसुहं तं सव्वं उवदंसित्ता पुत्तसयं रज्जसए अहिसिंचइ, अहिसिंचित्ता निक्खमणं पइ मणं संपहारेइ । तेणं कालेणं तेणं समएणं सारस्सयमाइया लोगंतियदेवा चलियासणा सिग्धं समागंतुण विणयविहियकरयलंजलीपूरओ होऊण एवं वयासी,--"बुज्झाहिणं लोगनाहो पढमतित्थसामी, पवत्तेहि णं पढमधम्मतित्थं" ति सयंबद्धमवि भगवंतं कप्पो त्ति काऊण बोहिंति । तओ संवच्छरियं महादाणं पयट्टइ सक्काणत्तधणयजक्खचोइयातिरियजंभगा देवा--नवाणि वा भट्टाणि वा पहीणसामियाणि वा, पण?सामियाणि वा पण?से उयाणि वा गिरिकंदरगयाणि वा मसाणटाणनिहियाणि घरंतरगोवियाणि हिरन्न-सुवन्न-मणिरयण-पमुहाणि निहाणाणि सव्वओ समंता समाहरिय समाहरित्ता विणीयाए नयरीए सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहपहेसु नगरनिग्गमठाणेसु पवेसठाणेसु अन्नेसु य बहुसु मग्गणठाणेसु पुंजीकरेंति । अन्नत्थ पुण महाणसिया जहिच्छिया अहासुंदरे सत्तायारे पयद॒ति । किं बहुणा जो जं मग्गइ तस्स तं "वियारिज्जइ भणियं च संवच्छरेण होही अभिनिक्खमणं तु जिणवरिंदस्स । तो अत्थसंपयाणं पवत्तए पुख्वसूरम्मि ।।११८६।। एगा हिरनकोडी अट्टे व अणूणगा सयसहस्सा। सूरोदयमाईयं दिज्जइ जा पायरासाओ ।।११८७।। सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-चउमुह-महापहपहेसु । दारेसु पुरवराणं रच्छामुहमज्झयारेसु ।।११८८।। वरवरिया घो सिज्जइ किमिच्छियं दिज्जए बहुविहीयं । सुर-असुर-देव-दाणव-नरिंदमहियाण निक्खमणे ।।६६८९।। तिन्नेव य कोडिसया अट्ठासीइं च होंति कोडिओ। असिइं च सयसहस्सा एवं संवच्छरे 'दिन्नं ।।६६९०।। कालाणभावओ तित्थयराणभावओ य किमिच्छ्यिपयाणे वि न समहियगाहगा। एवं संवच्छरमछिण्णं कणगसलिलधाराहि महामेहो ब्व कयत्थी काऊण दुग्गयवप्पीहयकुडुंबाणि भरहं विणीयाए, बाहुबलि बहलीजणवए, तक्खसिलाएनयरीए अण्णे य नियनियनामंकिएसु जणवएसु ठवेऊण, चेत्तस्स बहुलट्टमीए दिवसस्स पच्छिमे भाए सुदंसणाए सीयाए सदेवमणुयासुराए परिसाए समणुगम्ममाणमग्गे विणीयंरायहाणि मज्झं मज्झेणं निग्गच्छइ निगच्छित्ता जेणेव सिद्धत्थ पयाणय जे० । २ पेक्छा जे०। ३ पुव्व सह० पा०। ४ णि या अण्ण उयाणि वा पण जे० ।५ निग्गमपवेस पा० इंछियाहारसुंजे० । ७ तविणिघर तरंगो वि पा० । ८ वियरज्जइ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322