Book Title: Jugaijinandachariyam
Author(s): Vardhmansuri, Rupendrakumar Pagariya, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad
________________
१५०
जुगाइजिणिद-चरियं
मह पवणपोयसरिसो सुयणो महिमंडले वि न हु अन्नो । ता तुन्भेवि न चित्ते कुवियप्पो को वि कायव्वो ॥१३३०॥ ता एसा मह दुहिया जह सुहिया होइ तह करेज्जासु। कंतिसिरि एहि गच्छसु ससुरघरं सासुया सहिया ।।१३३१।। इय पिसुणियसभावं सिणेहभरनिब्भरं सुणेऊण । वेवाहियस्स वयणं विहुणिय-गव्वं मणभिरामं ॥१३३२॥ परिओसवियसियच्छी गंतुमणा धणसिरी इमं भणइ । अवरद्धे जे सुयणा ते विरला तुज्झ सारिच्छा ॥१३३३।। अमयमयमयविवज्जियसुपुरिसधुरधरणधवलवच्चामि । गुणसरिसं लहु सुसिरं' आचंदक्कं चिरं जीव ।।१३३४।।
एमाइकोमलवयणपुरस्सरं बहुयरं गहाय गया धणसिरी। पवणकेऊ सुयणभावेण ववहरइ। पवणपोओ पुण मग्गावडिओ विकयालवणो वि अवियसियकिसुय-कुसुम-चंकियमहो अदिनपडिवयणो दुज्जणो विव ववहरइ । धणगव्वगविओ न नमसइ देवयाणि, न वरि पस्सइ गुरुजणं, न संभासइ सूहि-सयणवगं, नायरं करेइ धन्नस्स । परियणं पइ कडुयाणि पयंपंतो सुयइ कड्याणि पयंपंतो चेव विउज्झइ लच्छि-पिसाइया गहियविग्गहो तिहयणं पि तिणतुल्लं पयक्केइ । एवं वच्चंति वासरा।
__अन्नम्मि दिणे पवणकेऊ अद्धरत्तसमए वासभवणपल्लंकपसुत्तो मणहररूवधारिणी नियत्थसियवसणा मज्झिमवए वट्टमाणी बहपुनपावणिज्जदंसणं एगं इत्थियं पासइ। तओ कयंजलीपल्लंक मोत्तण ससंभममुट्रिओ भणइ---"भइणि! का तुमं? किं कारणं अग्गलियदुवारे वासभवणब्भंतरे एगागिणी पविट्ठा?" तीए भणियं--"महाभाग! पवणपोयघरलच्छी तुह घरावयरणनिमित्तमागया।" तेण भणियं--"किं कारणं पवणपोयमंदिरं परिहरिज्जइ?" लच्छीए भणियं--"देवगुरुभत्ति-रहियं दंतकलहसहियं दप्पंधसामियं अवगन्नियधन्नमधन्नं खु तं घरं अओ उज्झइ, जइ भणह तो ते घरमवयरामि। पवणकेउणा भणियं--"
आवंती न निवारउं जंती न वि धरिउं। इंति य हरिसु विसाओ न जंतियई मणि करउं ।।१३३५।। सुत्ती (मुत्ती) अच्छसि खणु वि न, आगय मज्झे घरे (रि)। एउ जाणि वि जं रुच्चइ तं तुहं लच्छि करि ।।१३३६।।
लच्छीए भणियं--"एवं पि समागमिस्सामि"। तेण भणियं--"जं भे रोयइ।" तओ अदसणं गया संपया। पवणकेऊ वि पभाए पडिबुद्धो काऊण गोसकिच्चं कुलदेवया दंसणत्थं मंदिरमणुपविट्ठो। पासइ अदिट्ठपुव्वकंसदूसाइपडिपुण्णं मंदिरं, सुवन्नरयणाण भरियभंडारे, नाणाविधनपडिपुन्ने कोद्वारे । तओ चिंतियमणेण-"पवणपोयसंतिया सिरी एसा। मह मंदिरमल्लीणा सब्वत्थ आयरं काऊण घरकज्जाणि चितिउमाढत्तो । पवणपोओ वि सुन्ने दठूण भंडारकोट्ठागारे कंसदूसाइरहियं मंदिरं।" हा! नट्ठा मे सिरी, विणट्ठा मे सिरी, केण वा अवहडा मे सिरी, कत्थ वा गया मे सिरी इच्चाइविविहं विलवंतो गहिओ निरामयवायपिसाएण हसिज्जतो सयणपरियणपउरलोएण कालं गमेइ । अहवा
ते पुत्ता ते मित्ता ते सुहिणो' सज्जणे वि ते चेव। मोत्तूण ठिया दूरं सउणा व तरुं फलविहूणं ॥१३३७।। सो गब्बो सा लच्छी सपरियणो सो महापरिप्फंदो। पवणेण व सरयघणो दिट्ठ-विणट्ठो कओ विहिणा ॥१३३८॥ पायडियवियाराए चलाए बहुलोय पत्थणिज्जाए । वेसा इव लच्छीए काउरिसा वेलविजंति ।।१३३९।। अच्छउ ता परलोगो तव-विणय-पयाण-भावणा सज्झो। इह लोगो वि दुरंतो लच्छी छलियाण पुरिसाण ।।१३४०॥ सो वि तहा गहगहिओ धणरहिओ खिज्जिऊण चिरकालं । अकयपरलोगमग्गो मरिऊणं दुग्गइं पत्तो ॥१३४१।।
१. सुसिरिं पा० । २. धरउई पा०। ३. इंति इं पा०। ४. जंति य पा० । ५. करउ पा०। ६. न खणमवि प्राग० पा० ।। ७. सुयणो पा० ८. सज्जणा पा० । ९. दूरे पा० । १०. पत्थिणाज्जाए पा० । दुग्गयं पा० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322