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जिनविजय जीवन-कथा
से दो वर्ष की छुट्टी लेकर जर्मनी आदि युरोप के विद्या केन्द्रों का परिचय और सम्पर्क प्राप्त करने के लिये प्रस्थान कर गया।
फ्रांस, इंग्लेण्ड, बेल्जियम, हॉलेण्ड होता हुआ मैं जर्मनी के विश्व विख्यात बन्दरगाह स्वरूप हाम्बुर्ग पहुंच गया। वहां पर डा० शुव्रींग मेरी प्रतीक्षा कर ही रहे थे। उन्होंने बहुत ही सद्भाव और सौहार्द्र पूर्वक मेरे ठहरने आदि का सुप्रबन्ध कर दिया।
हाम्बुर्ग युनिवर्सिटी में, उस समय डा० शुवींग के भारतीय संस्कृति विषयक शोध विभाग में, कई जर्मन और भारतीय स्कॉलर अध्ययन एवं संशोधन का कार्य कर रहे थे। डा० शुव्रींग ने मुझे भी उस कार्य में यथा योग्य भाग लेने और सहयोग देने का अवसर दिया।
एक दिन डा. शूबींग ने अपने अध्येता स्कॉलरों के साथ मुझे चाय पान के लिये निमंत्रित किया । चाय पान के समय अनेक प्रकार के विचारों का आदान प्रदान होता रहा । डा. शुब्रींग ने प्रसंग वश मेरे पूर्व जीवन के विषय में कुछ संक्षिप्त जानकारी चाही।
इससे पहले इस विषय में कभी किसी विद्वान् ने मुझे वैसी कोई बात पूछी नहीं थी और मैंने भी अपने जीवन के विषय में कभी कोई वैसा विचार नहीं किया था । डा. शुब्रींग के साथ वैसा प्रसंग उपस्थित होने पर, मैंने जैन धर्म के उन अनेक ऐतिहासिक विद्वानों के जीवन संस्मरण विषयक संक्षिप्त परिचय देने वाले प्राचीन उल्लेखों का जिक्र किया । ये उल्लेख उन ग्रन्थकारों के अपने ग्रन्थों में परिचयात्मक प्रशस्ति स्वरूप हैं। इस विषय में डा. शुब्रींग से अनेक बातें होती रहीं। मैंने कुछ संक्षिप्त रूप में अपने जीवन की पूर्वावस्था के प्रसंग उन्हें सुनाये । उस समय डा. शुब्रींग की पत्नी और स्नेहालू पुत्री भी उपस्थित थीं। मेरे पूर्व जीवन के उन संस्मरणों के कुछ नोट भी डा. शुश्रींग करते गये। सबसे अधिक रस उनको उस प्रसंग में आया जिसमें मैंने अपने दादा और पिता के, सन् १८५७ के सैनिक बलवे के समय भाग लेने आदि
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