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गुरु के सर्व प्रथम दर्शन यह सड़क जगह जगह से टूट फूट गई थी। केवल कहीं जल्दी पहुँचने के लिये घोड़े की सवारी काम में आती थी।
हमारी गाड़ियां शाम को चार पांच बजे बानेण पहुंची और सारे दिन का खूब परिश्रम और कठोर ताप सहन करते हुए हम लोग बानेण गांव में धनचन्द यति का जो एक दो घर वाला छोटा सा मकान था, उसके द्वार पर पहुंचे। गाड़ी में से सामान उतारा गया और जल्दीजल्दी एक खाट मंगवा कर उस घर के छोटे से आंगन के बीच में वह खाट बिछाई गई और उस पर बिस्तर डालकर गुरु महाराज को लिटा दिया गया। उस सारे दिन में उन्होंने कुछ भी खाया पीया नहीं था। इससे उन्हें बहुत थकावट महसूस हो रही थी । धनचन्द यति के पास दो एक गायें थीं जिनका दूध निकाल कर थोड़ा सा गुरु महाराज को पिलाया गया। वे इतने थके हुए थे कि उनमें बोलने की भी शक्ति नहीं रह गई थी। पर रात होने पर उनको कुछ अच्छी निद्रा आ गई । मैं भी उन्हीं के पास एक छोटी सी खाट पर दरी जैसा कोई कपड़ा डाल कर सो गया । मुझे भी थकान का अनुभव हो रहा था। धनचन्द यति ने एक थाली में गरम गरम मक्की की रोटी परोसकर एक कटोरी में गाय का दूध खाने के लिये रख दिया । अतः उस मक्की की रोटी को दूध की कटोरी में मसल कर मैंने बड़े आनन्द के साथ पेट भर लिया और खाट पर लम्बा होकर सो गया ।
सवेरा होने पर एक छोटे से मिट्टी के घर में, जिसके एक ही दरवाजा था, उसके अन्दर गुरु महाराज का खाट बिछा दिया गया और उस पर गुरु महाराज को लिटा दिया गया । गुरु महाराज उस छोटे से घर को देखकर मन में खिन्न हुए क्योंकि रूपाहेली में उनके रहने का जो उपाश्रय था, वह अच्छा बना हुआ पक्का मकान था । एक बड़ा सा हॉल था, उसके आगे छह सात फुट लम्बा बरामदा था, जिस पर पत्थर की पट्टियां पड़ी हुई थीं। मुख्य हॉल के ऊपर वैसा ही दालान
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