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जिनपिंजय जीवन-कथा - कोई सात आठ बजे जब सूर्य ऊपर चढ़ आया था और ग्रीष्म काल का प्रखर ताप बढने लगा था, तब यति धनचन्द दो बैलगाड़ियां किराये पर कर लाये । उनमें से एक में सामान रखा और एक गाड़ी पर खाट बिछाने की व्यवस्था कर उस पर गुरु महाराज को उठाकर सुलाया गया। चित्तौड़ से उदयपुर जाने वाली टूटी फूटी सड़क पर हमारी गाड़ियां चल पड़ीं। घंटे आधे घंटे बाद चित्तौड़ का किला पीछे छूट गया। तब गुरु महाराज ने धनचन्द यति से पूछा कि भाई तेरा गांव कितनी दूर है ? गुरु महाराज की यह कल्पना थी कि उसका गांव चित्तौड़ के पास ही कहीं दो तीन मील की दूरी पर होगा और इसीलिये वे इस चित्तौड़ की उपत्यका में अपना देह छोड़ने के विचार से यहाँ आने को तत्पर हुए थे। पर धनचन्द यति का वह बानेण गांव चित्तौड़ से सोलह माइल दूर था। जिसकी कोई कल्पना गुरु महाराज की नहीं थी। दो तीन मील चलने पर जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि बानेण गांव तो चित्तौड़ से ८ कोस दूर है और शाम तक बड़ी मुश्किल से वहाँ पहुँच सकेंगे, तब गुरु महाराज का मन एक दम खिन्न हो गया और उन्होंने उग्र स्वर से धनचन्द से कहा-भाई तैने तो मेरे साथ बड़ी धोखेबाजी की। तेने तो मुझे कहा था कि मेरा गांव चित्तौड़ के पास ही है और इसीलिये मैंने तेरे साथ आने की इच्छा प्रकट की परन्तु अब क्या हो सकता था। गुरु महाराज तो अब इतने अशक्त हो गये थे कि वे कुछ करने कराने में असमर्थ थे। वे बिल्कुल मौन हो गये और मन ही मन नवकार मंत्र का जाप करने लगे । मैं कभी उनके पास गाड़ी में बैठ जाता और कभी पैदल चलने लगता । धनचन्द गाड़ी के सामान के साथ चल रहे थे । जो दो महाजन रूपाहेली से साथ आये थे, वे चित्तौड़ का किला देखने को ठहर गये थे और गुरु महाराज से कह गये थे-'हम किला देखकर संध्या तक आपके पास पहुँच जावेंगे' । उन दिनों न बसें चलती थीं न मोटरें थीं, न साईकलें दिखाई देती थीं। चित्तोड़-उदयपुर रेल बनने से पूर्व इस सड़क पर चित्तौड़ से उदयपुर जाने के लिये घोड़े के तांगे चलते थे, लेकिन रेल्वे लाइन बनने के बाद इन तांगों का चलना सर्वथा बन्द हो गया था और
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