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श्री सुखानन्द जी का-प्रवास और भैरवी-दीक्षा [१०५ रखकर खाखी महाराज अपने बैठने के हाथी के हौदे के मध्य में रखते थे । कुछ परचुरणा कीमती सामान और पैसे टके रुद्र भैरवजी अपने सवारी वाले घोड़े पर जमा देते थे । बाकी का सब सामान जो गाड़ियों में रखा जाता था उस सबका हिसाब किताब कामदार जी के पास रहता था। ये कामदार जी किस जाति के और कहां के रहने वाले थे इसका तो मुझे आखिर तक पता नहीं लगा। परन्तु उनकी बोली से लगता था कि वे मथुरा प्रदेश के रहने वाले होंगे। कामदार जी बड़े चतुर और मिष्ट भाषी थे । सबके साथ अच्छा व्यवहार रखते थे। पहली ही बार जब मुझे उनकी छोलदारी में सोने का मौका मिला और उन्होंने मेरे मस्तक के मुंडवाने के लिए नाई को बुलाया और उसे दो चार शब्द में मस्तक मुंडने आदि के कारण की बात कही उससे मेरे मन पर एक सहानुभूति पूर्ण व्यक्ति के होने का असर पड़ा । उसी समय से वे बारम्बार देखभाल करने की प्रवृति रखने लगे। रुद्र भैरव जी ने चलते समय मुझे घोड़ी पर बैठ जाने को कहा परन्तु मैंने पैदल ही चलने की इच्छा व्यक्त की। मैंने कहा मुझे चलने का काफी अभ्यास है और चलने का शौक भी है । फिर मेरे साथ एक साधु को चलने का कहा गया। वे सेवकजी उस दिन बानेण जाने की सोचते थे परन्तु खाखी महाराज की सूचनानुसार दो तीन दिन मेरे साथ ही रहना उन्होंने पसन्द किया और वे भी मेरी पद यात्रा में साथी हो गये, यों तो मैं अब तक कई बार पैदल चला था, परन्तु साधु जीवन की यह मेरी प्रथम पद यात्रा थी।
सुखानन्द जी से चलकर हमारा काफिला अठाणा गांव में होता हुआ शाम को चार पांच बजे जावद पहुंचा । बीच में मध्याह्न के समय अठाणा के पास एक मैदान में जहाँ पर पांच सात घने वृक्ष थे और पानी का कुआँ था, वहीं पर विश्रान्ति ली गई। वहां भोजन के लिए दालबाटी बनाई गई।
इस अठाणा गांव में मेरे परिवार का एक बन्धु रहता था। बहुत वर्षों पहले मैं अपने स्वर्गीय पिता के साथ अठाणा पाया था। अगणे
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