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जिनविजय जीवन-कथा
लिए वे वहां चले गये । मैं मंडप्या में रहकर मक्कई आदि छुलवाने का काम यथाशक्ति करता रहा और इसमें ज्ञानचन्द जी की पत्नि की भी मदद मिलती रही। पन्द्रह सत्रह दिन के बाद ज्ञानचन्द जी वहां आ गये । कुछ दिन बाद धनचन्द जी भी बानेण से मिलने आये और मुझे बानेण चलने के लिए बहुत ही सद्भाव के साथ बड़ा आग्रह किया। उनको नाराज न करने की दृष्टि से मैं कुछ दिन के लिए बानेण चला गया। वहां पर धनचन्द जी ने मुझे कहा कि वर्षा के सावन-भादों के महीने में रूपाहेली से तुम्हारी मां ने उस ओसवाल महाजन को तुम्हें वहां ले जाने के लिए भेजा था। परन्तु सुखानन्द जी के जाने के बाद तुम्हारी कोई ठीक खबर मुझे नही मिली थी इसलिए मैंने उससे कह दिया था कि किशनलाल तो तीन चार महीने से कहीं मुसाफरी करने गया है वह अभी कहां है इसका कोई समाचार हमको नहीं है । यह बात सुनकर वह महाजन खिन्न होकर चला गया। उसने कहा कि तुम्हारी मां दिन-रात तुम्हें याद कर कर रोती रहती है। उसका शरीर बिल्कुल सूख गया है। वह मकान से भी बाहर नहीं निकलती है। और किसी से कोई बातचीत भी नहीं करती है। दो-दो, तीन-तीन दिन तक मह में अन्न तक भी नहीं डालती है। उसको शायद ऐसी भी कुशंका होती रहती है कि मेरा बेटा कहीं मर गया हो और जिसकी मुझे खबर न मिल रही हो। .. धनचन्द ने मुझसे कहा कि अगर तुम्हारी इच्छा हो तो मैं तुम्हें रूपाहेली ले चलूं और तुम्हारी मां से मिला लाऊँ । मेरी उस समय इस अवस्था में रूपाहेली जाने की इच्छा बिल्कुल नहीं हुई। मैं सोचने लगा कि मैं कैसी आशा और उमंग लेकर स्वर्गीय गुरु महाराज की सेवा करने की इच्छा से घर से निकला था। गुरु महाराज की मृत्यु के बाद मैं किस प्रकार बानेण में रहा और फिर किस प्रकार सुखानन्द जी में खाखी बाबा की जमात में बाबा बनकर चला गया और किस प्रकार उज्जैन में उस स्वांग को छोड़कर मंडप्या चला आया और आज मैं कैसी अकिंचन, असमर्थ और असहाय दशा का भुक्त भोगी बन रहा हूँ, ऐसी स्थिति में
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