Book Title: Jinvijay Jivan Katha
Author(s): Jinvijay
Publisher: Mahatma Gandhi Smruti Mandir Bhilwada

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Page 183
________________ १६०] जिन विजय जीवन-कथा ज़रूर याद किए हैं इत्यादि । मेरी बात सुनकर साधु महाराज ने पूछा कि "भाई, कौन से स्तुति-स्तोत्र तुम्हें याद हैं ? तो मैंने उनको बतलाया कि उवसग्गहर स्तोत्र, नमिभ्रूण स्तोत्र, भक्तामर स्तोत्र, आदि मैंने सीखे थे। तब वे बोले अच्छा किसी स्तोत्र की कुछ गाथाएँ' बोलो तो मेरे मुंह से सहसा सबसे पहिले संसार दावानल वाह नोरं इस स्तुति का पाठ निकल गया परन्तु उन साधु जी महाराज को इस स्तुति का कोई ज्ञान नहीं था यह स्तुति किस की बनाई हुई है और कहाँ बोली जाती है इससे वे सर्वथा अपरिचित थे । उनको सुनकर आश्चर्य हुआ बात यह थी कि यह स्तुति स्थानक वासी जैन सम्प्रदाय में ज्ञात नहीं है यह स्तुति जैन श्वेताम्बर मूर्ति पूजक सम्प्रदाय में प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं के समय पढ़ी जाती है । मुझे यह स्तुति सबसे पहले अपने वृद्ध परम गुरु ने सिखाई थी और वे रोज मुझसे इसका पाठ कराया करते थे तबसे लेकर यह स्तुति मुझे प्रिय लग रही है । और आज भी मैं इसका उसी तरह यथा समय पाठ किया करता हूँ। मुझे उस समय अनुभव हुआ कि उन साधु महाराज के सूत्र उच्चारण आदि की अपेक्षा मेरे उच्चारण उनको अधिक अच्छे लगे और मुझसे कहने लगे कि अभी तो यह हमारी श्राविका यहीं रहने वाली है और इसके साथ तुम भी यहीं रहने वाले हो, सो यहां हमारे पास बैठा उठा करो और कुछ पढ़ते भी रहो । उनके पास मेरी ही समान उम्र का एक बाल साधु था जो सामने बैठा हुआ कुछ सूत्र-पाठ पढ़ रहा था उसको दिखाकर मुझे कहा कि "देखो, यह साधु तुम्हारी ही उम्र का है और अच्छी तरह पढ़ने में इसका चित्त लगा रहता है तुम भी आवो और इसके पास बैठकर यह जो पढ़ता है इत्यादि बातें पूछते रहो। इसके बाद मैं प्राय. सारा दिन उस स्थानक में ही बैठा रहता और जो-जो भाई-बहिन लड़के लड़कियाँ आदि वहाँ पर आया करते थे, उनके साथ मेरा परिचय भी होता रहा। इस तरह कोई १२-१५ दिन दिगठान में बीत गए । पयुर्षणा के . बाद वह महाजन-दम्पति अपने गांव बदनावर जाने को तैयार हुए और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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