________________
१६४ ]
जिनविजय जीवन - कथा
ढाल, चौपाई आदि भाषा के ग्रन्थों को गा गाकर लोगों को सुनाते रहते हैं । संस्कृत भाषा के ग्रन्थ ये बिलकुल नहीं पढ़ते । इनका घूमना फिरना उन्हीं स्थानों में होता है जहां इनको मानने वाले श्रावक लोग होते हैं । ये न कहीं सभाओं उत्सवों आदि में जाते हैं, और ना ही कोई इनको बुलाते हैं । ये केवल कुछ उपवास वगैरह की तपस्याएं करते रहते हैं जिसके कारण चौमासे में बहुत से और गांवों के लोग भी इनके दर्शन वंदन आदि करने आते रहते हैं इत्यादि ।
ज्ञानचन्द जी दो तीन दिन दिगठान रहे और मुझसे इस प्रकार की बहुत सी बातें करते रहे । परन्तु मेरा मन उस समय ऐसे किसी साधु संत के पास रहकर अपना जीवन विरक्ता रूप में बिताने की ओर खिचता जाता था । मैंने पिछले दो तीन वर्ष यतियों और खाखी बाबों के साथ रहकर जो अनुभव किये उससे मेरे मन में एक प्रकार की विरक्ती ही हो गई । और इन नये साधु महाराज के पास निरंतर बैठे रहने से और उनके द्वारा संसार की असारता तथा कुटुम्ब परिवार की मिथ्या ममता आदि की बातें सुन २ कर मेरे मानसिक संस्कार वैसे बनने लगे । अपने पिता के परिवार की भी विषम घटनाओं का स्मरण कर २ मेरा मन एक प्रकार से जीवन से उदार सा भी होता रहता था । इसलिए मैंने सोचा कि इन साधुओं के जैसा विरक्त जीवन व्यतीत करने से भविष्य में कुछ कल्याण ही होगा । इसलिए ज्ञानचन्दजी की कही हुई उक्त प्रकार की बातों से मेरा मन आकृष्ट नहीं हुआ कुछ और भी बातें उन्होंने कही सुनी पर जब मेरा निश्चय उनको मालूम हुआ तो वे फिर कभी आकर मिलने की बात कहते हुए अपने गांव की तरफ चले गए । मैं दिगठान में उक्त प्रकार से अपना समय बिताता रहा और आखिर मन में यह निश्चय किया कि मैं इन साधु महाराज के पास दीक्षा ले लू |
मेरा यह विचार उन साधुजी महाराज द्वारा वहाँ के महाजनों को ज्ञात हुआ तो उन्होंने “शुभाय शीघ्रम्" इस न्याय को सोचते हुए तुरन्त ही मेरे दीक्षा महोत्सव की तैयारी सोचने लगे । कई अच्छे परिवार मेरा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org