Book Title: Jinvijay Jivan Katha
Author(s): Jinvijay
Publisher: Mahatma Gandhi Smruti Mandir Bhilwada

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Page 216
________________ विशेष टिप्पणी [१९३ घटना मैंने देखली और दस दिन पश्चात् सं. १९४६ पौष कृष्ण १४ को जन्म दिन पर प्राणी मात्र को मारना त्याग दिया है। हमारी आधुनिक क्षत्रिय जाति में दुर्भाग्य से नाशकारी मदिरा पीते और ३०-३५ जाति के जीवों का माँस खाया जाता है । अतः प्रतिवर्ष जन्म दिन पर एक २ जाति के प्राणी का मांस खाना भी छोड़ता गया और १६७६ के जन्म दिन पर चतुराश्रम धर्मशाला भी पूर्ण हुई थी और मुझको ठिकाने का अधिकारी हुए पूरे ५० वर्ष हो चुके थे जिसको अंग्रेज लोग स्वर्ण (गोल्ड) ज्युबिली कहते हैं । उक्त अवसर पर मद्य और माँस सदा के लिये त्याग दिया है । इसी प्रकार वि. सं. १९८६ भाद्रपद में ६० वर्ष पूर्ण हुए जिसको योरुप वासी डायमन्ड ज्युबिली (हीरक ज्युबिली) मानते हैं, उक्त अवसर पर "धर्म वर्धनी सभा" नियत करके नियम बना दिये और इसी दिन ७५१) रु. कलदार देकर उसके सूद से कई पशु पक्षियों के चुगाने का प्रबन्ध कर दिया है । अब सं. १६६५ के भाद्रपद (प्रोष्ट पद ) शुक्ला १३ को हमारे समस्त पूर्वजों से अधिक ६७ वाँ वर्ष आरम्भ हो जाने के कारण उपर्युक्त ऐतिहासिक लेख लिखा गया है । मेरा २५ वर्ष से ३ ) रु. भर चावल और ४०) रु. भर दूध मुद्गयूष के साथ, सात्विक भोजन है । इस मृत्यु व्यवस्था की पुस्तक में मैंने बहुत कुछ ऐतिहासिक वृतान्त संवत् १६६५ के भाद्रपद में लिख दिया है । यह बात वास्तव में सर्वथा अनुचित ही हुई है क्योंकि देश, काल, वंश, जाति और इतिहास का संबन्ध तो केवल इसी देह के जीवनकाल में रहता है । मृत्यु के उपरान्त मेरे इस जीव का न तो राठौड़ वंश से संबन्ध रहेगा, न क्षत्रिय वर्ण से, न मेवाड़ आदि देशों से और न मनुष्य, पशु, पक्षी आदि किसी जाति से संबन्ध रहेगा । यह अविनाशी अजर, अमर जीव कहाँ से तो आया है और अब कहाँ पर जावेगा, यह अज्ञात वृतान्त केवल सर्वान्तर्यामी जगदीश्वर के अतिरिक्त और किसी को भी ज्ञात नहीं है । वही इन सूक्ष्म जीवों को उनके कर्मानुसार सुख दुख सुगति, दुर्गति प्रदान करता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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