Book Title: Jinvijay Jivan Katha
Author(s): Jinvijay
Publisher: Mahatma Gandhi Smruti Mandir Bhilwada

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Page 217
________________ १९४] जिनविजय जीवन-कथा इसलिये मेरा यह पुरावृत लिखना सर्वथा अनुचित है । यह बात जानते हुये भी निम्नोक्त तीन कारणों से मुझको विवश होकर लिखने की धृष्टता करनी पड़ी है। अर्थात-प्रथम तो, परमात्मा ने मेरी आयु स्वइच्छा से भी कई वर्ष बढ़ा दी जिससे अवकाश मिला। द्वितीय मेरा पुरातत्व विद्या संबन्धी प्रेम आयु पर्यन्त अधिकाधिक बढ़ता रहने से उत्साह मिला और तीसरा मुख्य कारण यह था कि हमारे समस्त पूर्वजों की वंशावली में इस तुच्छ जीव का शासन काल सबसे अधिक अर्थात ६७ वां वर्ष आरंभ हो गया है। उक्त कारणों के उत्साह ने इस अल्पज्ञ जीव को विवश कर दिया जिससे यह अनुचित ऐतिहासिक वृत्तान्त लिखना पड़ा है । पूर्ण विश्वास है, विद्वान पाठक-वन्द मेरी इस अयोग्य धष्टता के कारणों पर दृष्टीपात करके क्षमा प्रदान करेंगे और क्षमाशील करुणासिन्धु जगदीश्वर मेरे आन्तरिक भावों को जानने वाले हैं। वे भी मेरी अनुचित धृष्टता पर दया करेंगे। (इत्योम ) विश्वानि देव सवितुर्दुरितानी परासुवः यद्भद्रं तन्न आसुवः ॥ ॥ओम उद्गीथः प्रणवश्चेति ।। इत्यो ३म इति श्री श्रीमन्नपति विक्रमादित्योत्पादित कालातीत सम्वत्सरमेकोनविंशतिशतेषु पञ्चनवत्यधिकेषु वर्षे (ईश्वत रत्नेन्दु हायने) अत्रांकतोऽपि विक्रम संवत १९६५ लो० प्रावृटऋत्वान्तर्गतेः प्रोष्टपद (भाद्रव) मासोत्तमे शुभे शुक्लपक्षे तिथौ चतुर्दश्यां गुरुवासरेइति ।। ओम उद्गीथ. प्रणवश्चेति ।। स्वहस्ताक्षरोयं लिपिकार परलोक पथिक प्रवासी क्षत्रिय वर्णान्तर्गत राष्ट्रकूट कुलोद्भव श्रीमान ठाकुर बलवन्तसिंहात्मज ठाकुर नतुरसिंह वर्मा मेदपाट देशान्तर्गत बृहत रुपाहेली सुस्थानेश सामन्त वर्ग स्थिते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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