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जिनविजय जीवन-कथा चूंकि वे मेड़तिया राठौड़ों के मुख्य वंशज हैं इसलिये उनके घराने में मीरांवाई के विषय की प्राचीन परम्परागत बातें अक्सर चली आई थी। इसलिये मैं जब उदयपुर में सर्वप्रथम होने वाले हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष के रूप में आया था, तब वापस लौटते हुये ठाकुर चतुरसिंहजी का बहुत आग्रह होने से उनसे मिलने रूपाहेली गया था, तब प्रसंगवश उनके घराने में मीराबाई की जीवन कथा के विषय में परम्परागत जो बातें चली चली आई थी उनकी भी उन्होंने बहुत जानकारी दी, और मैंने कुछ उसके नोट्स भी लिये। __ठाकुर चतुरसिंहजी के साथ जो बहुत सी बातें हुई उनमें मीराबाई द्वारा पूजित गिरधर गोपाल की मूर्ति का भी विशेष रूप से जिक्र हुआ। इसके पहले मुझे इस बात का ज्ञान नहीं था कि मीराबाई द्वारा पूजित वह मूर्ति कहाँ विराजमान है। इसके पूर्व चित्तौड़ किले पर स्थित मीरांबाई के मन्दिर का मैंने अपनी दृष्टि से अवलोकन किया था परन्तु उस समय उसमें कोई मूर्ति विराजमान नहीं थी। इस प्रसंग को लेकर स्व० ठाकुर श्री चतुरसिंहजी ने मुझ से कहा कि, मीराबाई जब चित्तौड़गढ़ छोड़ कर तीर्थयात्रा के लिये निकली और मेड़ता होकर वृन्दावन गई तब वह मूर्ति उनके साथ थी और वृन्दावन में उन्होंने कई वर्ष व्यतीत किये, गिरधर गोपाल की मूर्ति के सन्मुख ही वह सदैव अपनी भक्ति एवं उपासना करने में तल्लीन रहती थी। वहीं उन्होंने भगवान गिरधर गोपाल के प्रतीक सम्मान उस देवता मूर्ति को लक्ष्य कर अपने सब पद व भजन बनाये। वृद्धावस्था अधिक होने के कारण मीराबाई की अतिम इच्छा हुई कि भगवान श्री कृष्ण का पार्थिव विलय जिस सौराष्ट्र के द्वारका नामक स्थान में हुआ है, मैं भी उसी स्थान में वहाँ पर विराजमान भगवान श्रीकृष्ण के प्रतीक रणछोड़ राय जी के मूर्तस्वरूप के सानिध्य में मेरे पार्थिव रूप का भी विलय करू तो उत्तम
होगा।
अतः मीरा बाई वृन्दावन का प्रवास करती हुई द्वारका पहुंची और वहाँ पर रणछोड़ राय जी के मंदिर में अपनी सदैव की उपास्य
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